________________
१८
सारसमुच्चय
भक्षण, मदिरापान, चोरी, शिकार, वेश्यासेवन, परस्त्री सेवन इन व्यसनरूप अन्यायको तथा हिंसा - कारक व रोगवर्धक अभक्ष्य पदार्थोंको सेवन करके न्यायअन्यायका विचार छोड़कर धन एकत्र करनेमें व विषयभोगकी सामग्री प्राप्त करनेमें मूढ़ हो जाता है, आसक्त हो जाता है, धर्मके पथसे बिलकुल भ्रष्ट हो जाता है । ऐसा जीव तीव्र कर्मोंको बाँधकर उन कर्मोंके उदयसे करोडों कष्टप्रद जन्मोंमें महान असहनीय दुःख भोगता है । एकेंद्रिय पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पतिकायमें पराधीनपनेसे जो कष्ट भोगने पडते हैं वे वचनअगोचर हैं ।
कषायविषयैश्चित्तं मिथ्यात्वेन च संयुतम् । संसारबीजतां याति विमुक्तं मोक्षबीजताम् ॥ ३३॥
अन्वयार्थ - (मिथ्यात्वेन) मिथ्यात्व ( च कषायविषयैः ) और कषाय व विषयोंसे (संयुतम् ) ग्रसित (चित्तं) जीव (संसारबीजतां याति ) संसारके बीजको बोया करता है । (विमुक्तं ) जो इनसे छूट जाता है वह (मोक्षबीजताम् ) मोक्षका बीज बोता है ।
भावार्थ- वास्तवमें मिथ्यात्वके कारण यह जीव संसारको व संसारके सुखको ही सब कुछ मान लेता है । इस वासनासे अनन्तानुबंधी कषायोंका उदय जागृत रहता है । उसीके प्रभावसे यह विषय-भोगोंका तीव्र लोभी हो जाता है । इस कारण फिर भी निरंतर अनन्तानुबन्धी कषाय तथा मिथ्यात्व कर्मको बाँधा करता है - संसारको बढ़ाता रहता है । इसलिए जो विवेकी इस मिथ्यात्वको व अनन्तानुबंधी कषायको वमन कर देता है वह सम्यग्ज्ञानी होकर कर्मोंकी निर्जरा करता हुआ मोक्षका बीज बोता है । वह मोक्षके फलको कुछ काल पीछे पा सकेगा । इसलिए हिताकांक्षीको योग्य है कि वह इनके उपशमके लिए जिनवाणीको सुने, मनन करे, धारण करे व उसके अनुसार तत्त्वोंपर श्रद्धा लावे व देवपूजा, गुरुभक्ति, शास्त्रस्वाध्याय, संयम, तप, सामायिक व दान इन छः कर्मोंका नित्य पालन करे । यही तत्त्वका मनन वह उपाय है जिससे स्वयं मिथ्यात्वादिका बल क्षीण होता जायेगा और सम्यक्त्वभाव निकट आता जायेगा - संसारका बीज क्षय होगा और मोक्षवृक्षकी वृद्धि होगी ।
कषायरहितं सौख्यं इन्द्रियाणां च निग्रहे । जायते परमोत्कृष्टमात्मनो भवभेदि यत् ॥ ३४॥
अन्वयार्थ - (इन्द्रियाणां च) पाँचों इन्द्रियोंके ही निरोध करनेसे (आत्मनो ) इस आत्माके (परमोत्कृष्ट) सर्वोत्तम (कषायरहितं) वीतराग (सौख्यं) आनन्द (जायते)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org