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आत्माके वैरी विषय-कषाय कर्मके उदयसे कषायके विषका वेग चढ़ा है उस कषायके अनुभागको या उसके बलको घटाने या क्षय करनेके लिए संयमका साधन ही महामंत्र है । यही उस विषको उतारकर निर्विष करनेवाला है। अतएव हिताकांक्षीको उचित है कि श्रद्धासहित जैसे औषधिका प्रयोग लाभकारी होता है वैसे ही श्रद्धासहित मुनि या श्रावकके संयमकी आराधना करे, महाव्रतों या अणव्रतोंको पाले, अंतरंगमें मन और इन्द्रियोंको संयमित करके आत्मानुभव करे । यही निश्चय संयम है। यही वह महान मन्त्र है जिससे कषायका सर्व विष उतर जाता है और यह आत्मा परमात्मा हो जाता है। संयम हर स्थानमें विषयनागकी चोटसे बचानेवाला है।
कषाय कलुषो जीवः रागरंजितमानसः ।
चतुर्गतिभवाम्बोधौ भिन्ना नौरिव सीदति ॥३१॥ अन्वयार्थ-(कषायकलुषः जीवः) जो प्राणी कषायोंसे मलिन और कलंकित हो रहा है (रागरंजितमानसः) जिसका मन रागभावसे रंगा हुआ है वह (चतुर्गतिभवाम्बोधौ) चार गतिरूपी संसार समुद्रमें (भिन्ना नौः इव) टटी हुई नौकाके समान (सीदति) दुःख उठाता है।
भावार्थ-जैसे छिद्र सहित फटी नौकामें पानी भर जाता है तब वह . समुद्रमें डांवाडोल होकर डूबने लगती है व बहुत ही मुसीबतमें आ जाती है
वैसे ही इस संसारी प्राणीके राग, द्वेष, मोह भावोंके कारण कर्मोंका बंध हो जाता है जिससे यह नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव चारों ही गतियोंमें कहीं कहीं डावाँडोल होकर फिरता रहता है और तीव्र शारीरिक तथा मानसिक दुःख उठाता है, जिनको स्मरण करनेसे कलेजा काँप जाता है, अतएव उचित है कि इस कषायके विषको शमन किया जावे ।
कषायवशगो जीवो कर्म बध्नाति. दारुणम् ।
तेनाऽसौ क्लेशमाप्नोति भवकोटिषु 'दारुणम् ॥३२॥ अन्वयार्थ-(कषायवशगः) कषायोंके आधीन होता हुआ (जीवः) यह जीव (दारुणम्) तीव्र (कर्म) कर्म (बध्नाति) बाँध लेता है (तेन) इसी कारण (असौ) यह जीव (भवकोटिषु) करोडों जन्मोंमें (दारुणम्) महान घोर (क्लेशं) कष्टको (प्राप्नोति) प्राप्त होता है।
भावार्थ-जो अज्ञानी मिथ्यात्वी जीव है वह कषायोंके उदयके अधीन होकर कुदेव, कुधर्म, कुगुरु आदिके आराधनरूप मिथ्यात्वको, जुआ-खेलन, माँस
पाठान्तर-१. दुस्तरम् ।
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