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सारसमुच्चय
पूर्वक (नत्वा) नमस्कार करके ( मतिहीनोऽपि ) बुद्धिमें अल्प होनेपर भी ( कांचित्) कुछ (देशनां) उपदेशको ( वक्ष्ये) कहूँगा ।
भावार्थ- पूजनेयोग्य देव वही है जिसने आत्माके रागद्वेषादि व अज्ञानादि शत्रुओंको जीत लिया हो और अरहंत तथा सिद्धपद प्राप्त कर लिया हो । जिनका आत्मा कर्मकलंकरहित शुद्ध हो गया हो उनकी भक्ति उनको प्रसन्न करनेके लिए नहीं की जाती है किन्तु उच्च आदर्शके स्मरणसे भक्तजनके भाव निर्मल हो जाते हैं, संसार त्यागने योग्य व मोक्ष ग्रहण करने योग्य भासने लगता है, इसलिए उनकी भक्ति की जाती है। श्री कुलभद्र आचार्यने ग्रन्थकी आदिमें निर्विघ्न ग्रन्थ समाप्तिके हेतु और साधक जीव वस्तुतत्त्वके चिन्तनमें लवलीन रहे, इस हेतु मङ्गलाचरण करके धर्मोपदेश लिखनेकी प्रतिज्ञा की है ।
आत्महितकी आवश्यकता
संसारे पर्यटन् जंतुर्बहुयोनिसमाकुले ।
शारीरं मानसं दुःखं प्राप्नोति बत दारुणं ॥२॥
अन्वयार्थ - (बहुयोनिसमाकुले ) नाना योनियोंसे भरे हुए ( संसारे) इस संसारमें (पर्यटन) भ्रमण करता हुआ (जंतुः ) जीव (दारुणं ) भयानक ( शारीरं ) शरीर सम्बन्धी (मानसं) व मन सम्बन्धी (दुःखं) कष्टोंको ( प्राप्नोति) भोगता रहता है (ब) यह बड़े खेदकी बात है ।
भावार्थ-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगतिकी ८४ लाख योनियाँ है । इनमें यह संसारी प्राणी अपने-अपने बाँधे हुए पाप व पुण्यकर्मोंके फलसे आत्मज्ञानको न पाकर आत्मानन्दकी रुचि प्रगट न कर मात्र पंचेन्द्रियके विषयसुखमें अंध होता हुआ तीव्र मोह - रागद्वेष के कारण असहनीय दुःखोंको पाता है। नरकगतिके भीतर छेदन - भेदनादिके घोर दुःख हैं । तिर्यंचगतिमें भी छेदन - भेदन, भूख-प्यास, भारवहन, हिम, आतप, वध-बन्धनके घोर कष्ट हैं, मानवगतिमें रोगादि, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग व तृष्णाकी दाहके असह्य दुःख हैं । देवगतिमें ईर्ष्या, शोक व तृष्णाका अपार कष्ट है । चारों ही गतियोंमें शरीर सम्बन्धी व मन सम्बन्धी दुःख होते हैं । बड़े-बड़े पुण्यात्मा मानवोंको व देवोंको सामग्री होते हुए भी तृष्णाकी ज्वाला ऐसी असह्य पीड़ा उत्पन्न करती है जिससे वे घोर मानसिक कष्ट भोगते हैं । जो पाँचों इन्द्रियोंके सुखोंको ही सुख जानते हैं ऐसे अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंको चक्रवर्तीपदमें रहते हुए भी सुख-शांति नहीं मिलती है, चाहकी दाहमें जला
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