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श्रीमद् कुलभद्राचार्य-विरचित सारसमुच्चय टीकाकारका मङ्गलाचरण
दोहा श्री परमातम सकलको, नमहुँ ध्यान चित धार । जा प्रसाद शिव-मार्ग-को, लखा भविक भवतार ॥१॥ वर्तमान युग भरतमें, ऋषभादिक महावीर । तीर्थंकर चौवीसको, नमहुँ कर्म-क्षय-वीर ॥२॥ निकल सिद्ध परमातमा, सहजानन्द स्वभाव । शुद्ध बुद्ध अकलंक थिर, नमहुँ द्रव्य अर भाव ॥३॥ ग्रन्थ-रहित आतमरमी, दीक्षा शिक्षा देत । आचारज मुनिराजको, नमहुँ ज्ञान सुख हेत ॥४॥ शास्त्ररमी बहु ज्ञानधर, उपाध्याय मुनिराज । दाता आतमज्ञानके, नमहुँ निजातम काज ॥५॥ साधत शिवपथ प्रेमसे, बढ़े जात अध्यात्म । मूलोत्तर गुण पालते, नमहुँ साधु शुद्धात्म ॥६॥ जिनवाणी उपकारिणी, शिवमारग दरशात । पतितोद्धारक वर धरे, नमहुँ नाय निज गात ॥७॥ सार-समुच्चय ग्रन्थके, कर्ता श्री कुलभद्र । नमहुँ परम आचार्यको, लिखू सार भविभद्र ॥८॥
ग्रन्थकर्ताका मङ्गलाचरण देवदेवं जिनं नत्वा, भवोद्भवविनाशनम् ।
वक्ष्येऽहं देशनां कांचिन्मतिहीनोऽपि भक्तितः॥१॥ अन्वयार्थ-(अहं) मैं कुलभद्रआचार्य (भवोद्भवविनाशनम्) संसारके जन्मको नाश करनेवाले (देवदेवं जिन) देवोंके देव महादेव श्री जिनेन्द्रको (भक्तितः) भक्ति
१. प्रारंभ ता. २६-६-१९३५, वीर संवत २४६१, आषाढ वदी ११ बुधवार, धाराशिवमें।
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