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आत्महितकी आवश्यकता करते हैं । इन्द्रियोंके भोगोंको जितना भोगो, इच्छा अधिक-अधिक बढ़ती जाती है । इष्ट सामग्री न मिलनेका दुःख, देरसे मिलनेका दुःख, अनुकूल न परिणमनेका दुःख, उसके वियोग होनेका दुःख बना ही रहता है। जो कोई इस असार संसारके सुखोंका दास है उसे इस संसारके किसी भी जन्ममें शारीरिक या मानसिक दुःखोंसे छुटकारा नहीं मिलता है। मरण होता जानकर वह अन्धा प्राणी महान दुःखी होता है। आचार्यने खेद प्रकट किया है कि यह आत्मा है तो स्वयं परमात्माके समान ज्ञाता, द्रष्टा, आनन्दमय, अनंत वीर्यवान; परन्तु अनादिसे ज्ञानावरणादि कर्मोंकी संगतिमें अपनेको ऐसा भूल गया है कि अपने मूल स्वभावकी कुछ भी सुधि नहीं है । जिस शरीरको पाता है उसीमें आसक्त होकर बावलासा होकर मन, वचन, कायकी क्रिया करता रहता है, बारबार दुःख उठाता है, बारबार जन्ममरण करता है, मिथ्या श्रद्धानके कारण घोर आपत्तियाँ सहता है किन्तु आत्महितकी ओर दृष्टि नहीं करता, इसे अब तो चेतना चाहिए ।
आर्तध्यानरतो मूढो न करोत्यात्मनो हितं ।
तेनाऽसौ सुमहत्क्लेशं परत्रेह च गच्छति ॥३॥ अन्वयार्थ-(आर्तध्यानरतः) आर्त्तध्यानमें लवलीन (मूढः) मोही मिथ्यात्वी जीव (आत्मनो हितं) अपने आत्माका भला (न करोति) नहीं करता है (तेन) इस कारणसे (असौ) वह (परत्र च इह) परलोकमें तथा इस लोकमें (सुमहत् क्लेशं) बहुत भारी दुःखको (गच्छति) प्राप्त करता है। ____भावार्थ-जिसको अपने आत्माके स्वरूपका विश्वास नहीं है, जो केवल इन्द्रिय सुखको ही सुख जानता है वह रातदिन विषय-भोगोंके पीछे बावला रहता है, इसीसे चार प्रकारके आर्तध्यानोंमें फँसा रहता है, इच्छानुकूल इष्ट पदार्थों के संयोग न होनेपर किन्तु अनिष्ट पदार्थोंके संयोग हो जानेपर चिंता करता है, यह अनिष्ट-संयोगज आर्त्तध्यान है । इष्ट पदार्थोंके वियोग होनेपर चिन्ता करता है यह इष्टवियोगज आर्तध्यान है। शरीरमें रोगादि होनेपर चिन्ता करता है यह पीडाचिन्तवन आर्त्तध्यान है।' आगामी भोग-सामग्री मिले ऐसी चिन्ता करता है यह निदान आर्तध्यान है। इन क्लेशकारी भावोंसे इस लोकमें भी दुःखमय जीवन बिताता है तथा संक्लेश परिणामोंसे पापकर्म बाँधकर दुर्गतिमें जाकर तीव्र दुःख पाता है तथा आत्माका कुछ भी हित नहीं कर पाता, मानवजन्मको वृथा खोकर एक अपूर्व आत्मोन्नतिके साधनसे चूक जाता है।
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