SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वाधीन सुख ही सच्चा सुख है १३९ जावे तब मानवोंको आत्मध्यानका विशेष उपाय करना योग्य है जिससे कर्मोंका क्षय हो तथा जब तक मोक्षका लाभ न हो तब तक देव या मनुष्य गतिमें जन्म हुआ करे, नरक या पशुगतिमें जाना न पड़े। क्योंकि इन दोनों गतियोंमें शारीरिक घोर कष्ट भोगने पड़ते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव एक बार निगोदमें चला जाता है तब वहाँसे उन्नति करते हुए द्वीन्द्रियादि पर्याय पाना ही बहुत दुर्लभ है । मनुष्य होना तो बहुत ही कठिन है । स्वाधीन-सुख ही सच्चा सुख है आत्मा यस्य वशे नास्ति कुतस्तस्य परे जनाः । आत्माधीनस्य शान्तस्य त्रैलोक्यं वशवर्तिनं ॥३००॥ अन्वयार्थ-(यस्य वशे आत्मा नास्ति) जिसके आधीन अपना आत्मा नहीं है (परे जनाः कुतः तस्य) उसके आधीन दूसरे मानव कैसे हो सकते हैं ? (आत्माधीनस्य शांतस्य त्रैलोक्यं वशवर्तिन) जिसके आधीन अपना आत्मा है व जो शांत है उसके आधीन तीन लोक हो जाता है । भावार्थ-जो अपनी इन्द्रियोंको अपने वशमें रखता है, जिसके आधीन कषायभाव है, जो शान्तचित्त है, सहनशील है, क्षमावान है, उसका ऐसा प्रभाव पड़ता है कि तीन लोकके प्राणी उसके आधीन हो जाते हैं, आत्माके अन्तरंग गुण प्राणीमात्रको वश कर लेते हैं। अतएव अपने आत्माकी उन्नति अत्यन्त आवश्यक है। आत्माधीनं तु यत्सौख्यं तत्सौख्यं वर्णितं बुधैः । पराधीनं तु यत्सौख्यं दुःखमेव न तत्सुखम् ॥३०१॥ अन्वयार्थ-(यत् सौख्यं आत्माधीनं) जो सुख आत्माधीन है-आत्माका स्वभाव है (तत्सौख्यं बुधैः वर्णितं) उसीको बुद्धिमानोंने सुख कहा है । (यत् तु पराधीनं सौख्यं) जो सुख पराधीन है-इन्द्रियोंके विषयोंके आधीन है (तत्सुखं न दुखं एव) वह सुख नहीं है, किन्तु वह दुःखरूप ही है। ___भावार्थ-इन्द्रियोंका सुख अतृप्तिकारी है व तृष्णाकी दाहको बढ़ानेवाला है, आकुलताका कारण है जब कि अतीन्द्रिय सुख स्वाधीन है, आत्माका स्वभाव है, अविनाशी है, निराकुल है, कर्मोंका क्षय करनेवाला है। अतएव इस सच्चे आत्मिक सुखके लिए बुद्धिमानोंको उपवास करना योग्य है। इसका उपाय परसे ममत्व छोडकर एक निज आत्माका ही ध्यान है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy