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सारसमुच्चय
पराधीनं सुखं कष्टं राज्ञामपि महौजसां । तस्मादेतत् समालोच्य आत्मायत्तं सुखं कुरु ॥३०२॥
अन्वयार्थ - (महौजसां राज्ञां अपि) महान तेजस्वी राजाओंको भी ( पराधीनं सुखं कष्टं) पराधीन सुख कष्टका देनेवाला है ( तस्मात् एतत् समालोच्य ) इसलिए ऐसा भले प्रकार विचारकर ( आत्मायत्तं सुखं कुरु) आत्माधीन अतीन्द्रिय सुखके लिए प्रयत्न करना योग्य है ।
भावार्थ- इन्द्रियसुखसे कभी तृप्ति नहीं होती । बड़े-बड़े राजाओंकी भी तृष्णा बढ जाती है । जब इच्छित वस्तु नहीं प्राप्त होती है तब उनको बड़ा दुःख होता है तथा इष्ट पदार्थके वियोगका कष्ट होता है । साधारण लोगोंकी तो बात ही क्या है ? इसलिए यही उचित है कि इन्द्रियसुखको असार जानकर आत्माके स्वाभाविक सुखके लाभका प्रयत्न किया जावे, जिससे उभयलोकमें आनन्दका लाभ हो ।
आत्मायत्तं सुखं लोके परायत्तं न तत्सुखं । एतत् सम्यक् विजानंतो 'मुह्यन्ते मानुषाः कथं ॥ ३०३ ॥ अन्वयार्थ-(लोके आत्मायत्तं सुखं) इस लोकमें स्वाधीन सुख है वही सुख है ( परात्तं तत् सुखं न ) पराधीन सुख सुख नहीं है ( एतत् सम्यक् विजानन्तः) ऐसा भले प्रकार जानते हुए ( मानुषाः कथं मुह्यन्ते) मनुष्य क्यों इन्द्रियसुखमें मोह करते हैं ?
भावार्थ - अतीन्द्रिय सुख आत्माका स्वभाव है । अपनेसे ही अपनेको जब चाहे तब प्राप्त हो सकता है । वह कभी कम नहीं होता । उसके भोगनेमें अपनी कुछ हानि नहीं है, उल्टा कर्मोंका क्षय होता है । ऐसे सुखके सामने इंद्रियसुख पराधीन है, परपदार्थोंके व इन्द्रिय-बलके आधीन है, अतृप्तिकारी है । तृष्णारोगवर्धक है ऐसा भले प्रकार समझकर बुद्धिमानोंका कर्तव्य है कि वे उस झूठे इन्द्रियसुखमें मोह न करें। जो जानते हुए भी मोह करते हैं यह बड़े आश्चर्यकी बात है । वह मोहनीय कर्मके तीव्र उदयका दोष है । इस मोहके घटानेका उपाय जिनागमका सेवन है ।
परिग्रह सुखका बाधक है
नो सङ्गाज्जायते सौख्यं मोक्षसाधनमुत्तमम् । सङ्गाच्च जायते दुःखं संसारस्य निबन्धनम् ॥३०४॥
पाठान्तर - १. मुच्यन्ते ।
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