SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ सारसमुच्चय चिरं गतस्य संसारे बहुयोनिसमाकुले । प्राप्ता सुदुर्लभा बोधिः शासने जिनभाषिते ॥२९७॥ अन्वयार्थ-(बहुयोनिसमाकुले संसारे) चौरासी लाख योनियोंसे भरे हुए संसारमें (चिरं गतस्य) अनन्तकालसे भ्रमण करते हुए जीवको (जिनभाषिते शासने सुदुर्लभा बोधिः प्राप्ता) जिनेन्द्रभाषित धर्ममें बड़ी कठिनतासे ज्ञानका लाभ हुआ है। भावार्थ-दीर्घकालीन संसारमें एक तो मानव-जन्मका पाना कठिन है, दूसरे उत्तम कुल, दीर्घ आयु, इन्द्रिय पूर्णता, उत्तम देश, जैनधर्मका समागम ये सब साधन मिलना एकसे एक कठिन है। इस पर भी जैनधर्मका ज्ञान होना तो बहुत ही कठिन है। जिसको हो जावे उसको उचित है कि उस आत्मज्ञानको सम्हालकर रखे तथा प्रमाद छोड़कर आत्माका हितसाधन कर ले । यदि प्रमाद करेगा तो यह अवसर फिर न मिलेगा। अधुना तां समासाद्य संसारच्छेदकारिणीम् । प्रमादो नोचितः कर्तुं निमेषमपि धीमतां ॥२९८॥ अन्वयार्थ-(अधुना) अब (संसारच्छेदकारिणी तां समासाद्य) संसारको छेद करनेवाली उस बोधिको पाकर (धीमतां) बुद्धिमानको (निमेषं अपि) एक क्षणमात्र भी (प्रमादः कर्तुं न उचितः) प्रमाद करना उचित नहीं है। भावार्थ-बड़ी ही कठिनतासे जैनधर्मका समागम होता है, तथा उससे भी कठिन तत्त्वोंका ज्ञान है । ज्ञान होकर श्रद्धान होना तो और भी कठिन है। श्रद्धानसहित ज्ञान होनेपर चारित्रके पालनमें बुद्धिमानको प्रमाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि मानवजन्मके बीत जानेका कोई समय नियत नहीं है। शीघ्रातिशीघ्र आत्मशुद्धिका पुरुषार्थ कर लेना उचित है। मुनि या श्रावकके व्यवहारचारित्रके सहारेसे आत्मानुभवरूप निश्चय चारित्रका अभ्यास करना योग्य है जिससे जीवन सदा सुखदायी हो जावे । प्रमादं ये तु कुर्वति मूढा विषयलालसाः । नरकादिषु तिर्यक्षु ते भ्रमन्ति चिरं नराः॥२९९॥ अन्वयार्थ-(ये तु मूढा) जो कोई मूढ़ पुरुष (विषयलालसाः) इन्द्रियोंके विषयोंके लम्पटी होकर (प्रमादं कुर्वति) प्रमाद करते हैं (ते नराः नरकादिषु तिर्यक्षु चिरं भ्रमन्ति) वे मानव नरक-तिर्यंच आदि गतियोंमें दीर्घकाल तक भ्रमण करते रहते हैं। भावार्थ-अवसरको चूकना बड़ी भारी भूल है । आत्म-ज्ञानका लाभ हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy