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कलह व विवाद नहीं करना लग जावे तो वह मानव बड़ा ही कृतघ्नी है; क्योंकि धर्मके प्रतापसे शुभसंयोगको प्राप्त होकर उसी धर्मका तिरस्कार करता है, वह मानव क्षमाका पात्र नहीं ।
शत्रुभावस्थितान् यस्तु करोति वशवर्तिनः ।
प्रज्ञाप्रयोगसामर्थ्यात् स शूरः स च पण्डितः ॥२९०॥ अन्वयार्थ-(यः तु) जो कोई (शत्रुभावस्थितान्) रागद्वेषादि शत्रुओंको (वशवर्तिनः करोति) अपने वश कर लेता है (प्रज्ञाप्रयोगसामर्थ्यात्) भेदविज्ञानके अभ्यासकी शक्तिसे, (स शूरः स च पण्डितः) वह वीर है तथा वही पण्डित है । __ भावार्थ-भेदविज्ञानकी पैनी छेनीसे रागद्वेषादि आत्माके वैरी जीत लिये जाते हैं। जो महात्मा इन विभावोंपर विजय करता है वही सच्चा वीर है, और वही सच्चा पण्डित है। उसीका जीवन आदर्श एवं सफल है जिसने आत्मानन्दको प्राप्त कर लिया है। अतएव हे भाई ! तू भी रागद्वेषादि विभावभावों पर विजय प्राप्त कर, चिद्स्वरूपमें रम, और स्वात्मानन्दका उपभोग कर।
कलह व विवाद नहीं करना विवादो हि मनुष्याणां धर्मकामार्थनाशकृत् ।
वैरान् बन्धुजनो नापि नित्यं वाहितकर्मणां ॥२९१॥ अन्वयार्थ-(मनुष्याणां विवादो हि) जो मानवोंमें परस्पर विवाद या झगड़ा करना है वह (धर्मकामार्थनाशकृत्) धर्म, अर्थ, काम तीनों पुरुषार्थों का नाश कर डालता है, क्योंकि (वाहितकर्मणां) कर्मोंके फलको भोगनेवाले मानवोंके (वैरान् बन्धुजनः नापि नित्यं) वैरी व बन्धुजन कोई नित्य नहीं हैं।
भावार्थ-जगतमें झगड़ा करनेसे बहुत हानि उठानी पड़ती है, कलहके कारण शत्रु अनेक हो जाते हैं । जगतमें न बन्धुजन नित्य हैं न शत्रु नित्य है। सभीको अवस्था बदलनी पड़ती है। अतएव ज्ञानीको उचित है कि शांत जीवन बिताये, रागद्वेष न करे, विवाद न करे तब उभय लोकमें सुख होगा ।
धन्यास्ते मानवा नित्यं ये सदा क्षमया युताः ।
वञ्चमाना न वै लुब्धा विवादं नैव कुर्वते ॥२९२॥ अन्वयार्थ-(ते मानवा नित्यं धन्याः) वे मानव नित्य ही धन्य हैं, प्रशंसनीय हैं (ये सदा क्षमया युताः) जो सदा क्षमागुणसे पूर्ण होकर (वञ्चमाना न वै लुब्धा)
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