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________________ १३६ सारसमुच्चय दूसरोंसे ठगे जाने पर भी आकुलित नहीं होते हैं और (विवादं नैव कुर्वते) किसीके साथ विवाद नहीं करते हैं। भावार्थ-यहाँपर दिगम्बर जैन साधुओंको लक्ष्यमें लेकर कहा है कि वे साधु सदा ही उत्तम क्षमा गुणको पालते हैं, कभी भी क्रोध करके अपनी आत्माको कलुषित नहीं करते हैं, न किसीके साथ वाद-विवाद करते हैं। यदि कोई उनको ठग लेता है, उनके साथ कपट करता है तो भी वे संत महात्मा क्षमाभावसे अपने कर्मोंका उदय विचार कर सह लेते हैं । वचनोंसे और मनसे कोई विकल्प-विवाद नहीं करते हैं । वादेन बहवो नष्टा येऽपि द्रव्यमहोत्कटाः । वरमर्थपरित्यागो न विवादः खलैः सहः॥२९३॥ अन्वयार्थ-(वादेन बहवः नष्टाः) परस्पर विवाद उठनेसे बहुत नष्ट हो चुके, (येऽपि द्रव्यमहोत्कटाः) बड़े बड़े धनिक भी नष्ट हो गये, अतः (खलैः सह विवादः न वरं अर्थपरित्यागः) दुष्टोके साथ झगड़ा करना अच्छा नहीं, किन्तु द्रव्यका त्याग करना पड़े तो वह ठीक है । भावार्थ-साधुओंको तो सदा समभाव रखना चाहिए, किसीके साथ विवाद न करना चाहिए । गृहस्थोंको भी यह उपदेश है कि किसीके साथ लडाई-झगड़ा न करें । लड़ाईकी आग बढ़नेसे दोनों ओर विनाश होता है। सज्जनोंके साथ विवाद आ जावे तो शीघ्र निपट जाता है, अधिक हानि नहीं होती है, परन्तु दुर्जनोंके साथ विवाद तो ठीक ही नहीं है। यदि कुछ द्रव्यके त्यागसे झगड़ा निबट जावे तो निबटा लेना चाहिए, अन्यथा भारी हानि उठानी पड़ेगी। इसका अभिप्राय यह नहीं कि दुष्टसे दबकर अपनी हानि उठा लेना। थोडी हानिसे, द्रव्यके देनेसे यदि वह मान जावे तो अधिक लड़ाई-झगड़ा न बढ़ाना चाहिए। ___ अहंकारो हि लोकानां विनाशाय न वृद्धये । यथा विनाशकाले स्यात् प्रदीपस्य शिखोज्वला ॥२९४॥ अन्वयार्थ-(अहंकारः) अहंकार या घमण्ड (हि लोकानां विनाशाय) निश्चयसे लोगोंका नाश करनेवाला है, (न वृद्धये) उससे उन्नति नहीं होती है । (यथा विनाशकाले प्रदीपस्य शिखोज्वला स्यात्) जैसे जब दीपक बुझने लगता है तब उसकी लौ बढ़ जाती है। भावार्थ-गृहस्थोंको उचित है कि धन, अधिकार, कुटुम्ब, राज्य आदिके होनेपर अहंकार या घमण्ड न करे, क्योंकि ये सब पदार्थ नाशवन्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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