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________________ १३४ सारसमुच्चय सुदृष्टमनसा पूर्वं यत्कर्मसमुपार्जितम् । तस्मिन् फलप्रदेयास्ते कोऽन्येषां क्रोधमुद्हेत् ॥२८७॥ अन्वयार्थ-(सुदृष्टमनसा) सम्यक्दृष्टिवान मनुष्यके द्वारा (पूर्वं यत् कर्मसमुपार्जितं) पूर्वमें जो कर्म उपार्जन किया गया है (तस्मिन् फलप्रदेयाः ते) उसका फल प्राप्त होनेपर (कः अन्येषां क्रोधं उद्घहेत्) कौन दूसरों पर क्रोध करेगा ? भावार्थ-जब किसीको कोई कष्ट किसीके द्वारा पहुँचता है व किसीके द्वारा किसीका नुकसान होता है तब उसमें दूसरा तो केवल निमित्तमात्र है, उस कष्ट या हानि होनेका मूल कारण उस जीवका अपना ही अशुभ भावोंसे बाँधा हुआ पापकर्म है । तब ज्ञानी विचारता है कि इसमें मेरा ही अपराध है, ये तो निमित्तकारण मात्र हैं। मुझे इनपर क्रोध नहीं करना चाहिए। भला हुआ कि इनके निमित्तसे मेरा कर्म क्षय हो गया ऐसा विचारकर समभाव रखता है। १विद्यमाने रणे यद्वच्चेतसो जायते धृतिः । कर्मणा योध्यमानेन किं विमुक्तिर्न जायते ॥२८८॥ अन्वयार्थ-(रणे विद्यमाने) युद्धक्षेत्रमें रहते हुए (यद्वत्) जिस तरह (चेतसः धृतिः जायते) चित्तको धैर्य रहता ही है (कर्मणा योध्यमानेन) तब कर्मोंसे युद्ध करते हुए (विमुक्तिः किं न जायते) मोक्ष क्यों नहीं होगा ? भावार्थ-जो साहसी होता है वह विजय प्राप्त कर लेता है । युद्धमें जो ठहरेगा उसे अवश्य धैर्य और साहस रखना ही होगा, नहीं तो वह युद्धक्षेत्रमें ठहर नहीं सकता। इसी तरह जो यह विचार दृढ़तासे करेगा कि मुझे अवश्य कर्मोंको जीतना है तो अवश्य धैर्य और साहसके साथ आत्मध्यान करेगा । ध्यानके बलसे कर्मोंको क्षय करके अवश्य मुक्त हो जायेगा। स्वहितं यः परित्यज्य सयत्नं पापमाहरेत् । क्षमां न चेत् करोम्यस्यमत्कृतघ्नो न विद्यते ॥२८९॥ अन्वयार्थ-(यः स्वहितं परित्यज्य) जो अपने आत्मकल्याणको त्यागकर (सयत्नं पापं आहरेत्) यत्नपूर्वक पापको एकत्र करता है (क्षमां चेत न करोमि) इसको क्षमा मैं नहीं करता हूँ, क्योंकि (अस्यमत्कृतघ्नो न विद्यते) उसके जैसा अन्य कोई कृतघ्नी-उपकारको भूलनेवाला नहीं हैं। __ भावार्थ-जो अज्ञानी मानव आत्महितके कार्यको न करता हुआ विषयवासनाके लोभसे चारित्रको छोड़कर भ्रष्ट हो जावे और पापोंको करने पाठान्तर-१. छिद्यमाने ऋणे । २. शोध्यमानेन । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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