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________________ १३३ १३३ भावार्थ-कामनाको काम-क्रोधादि हानिकारक हैं काम-क्रोधादि हानिकारक हैं देहं दहति कामानिस्तत्क्षणं समुदीरितम् । वर्द्धमानः समामग्र्यं चिरकालसमार्जितम् ॥२८५॥ अन्वयार्थ-(कामाग्निः)कामभावकी आग (समुदीरितम्) जब उठ खड़ी होती है (तत् क्षणं देहं दहति) तब उठनेके साथ ही शरीरको जलाती है । (वर्द्धमानः) जब वह कामकी अग्नि बढ़ जाती है तब (चिरकालसमार्जितम्) दीर्घकालसे अभ्यासमें लाई हुई (समामग्र्यं) शान्तिको मुख्यतासे जला देती है। भावार्थ-कामभावकी आग बड़ी ही भयंकर है। जब इसकी ज्वाला प्रगट होती है तब, जैसे मन आकुलित होता है वैसे ही शरीरका रुधिर जलने लगता है। जब वह कामकी चाह तीव्र वेग-रूप हो जाती है तब तो बहुत ही हानि करती है । दीर्घकाल अभ्यास की गई शान्ति शीघ्र ही जाती रहती है। कामकी चाहकी आकुलतासे वह दिन-रात दुःखी रहता है। अतएव जिन निमित्तोंसे कामभाव जागृत हो उन निमित्तोंसे भले प्रकार बचना चाहिए । अग्नि तो वर्तमान शरीरको जलाती है परन्तु कामकी आग प्राणीको भवभवमें जलाती है । वह बड़ी ही भयंकर है। क्रोधेन वर्धते कर्म दारुणं भववर्धनम् । साम्यं च क्षीयते सद्यस्तपसा समुपार्जितम् ॥२८६॥ अन्वयार्थ-(क्रोधेन दारुणं भववर्धनं कर्म वर्धते) क्रोध कषायसे भयानक संसारको बढ़ानेवाला कर्मबंध बढ़ता है (तपसा समुपार्जितम् च साम्यं सद्यः क्षीयते) तथा तप करनेसे जो प्राप्त की हुई समता है वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। ___ भावार्थ-क्रोधके समान कोई भयंकर आग नहीं है । परिणाम बड़े ही क्रूर, क्लेशित व हिंसक हो जाते हैं। इसलिए तीव्र चारित्रमोहनीय आदि अशुभ कर्मोंका बन्ध होता है, जिसका फल भवभवमें दुःखदायी होता है। वैरभाव कई जन्मों तक चला जाता है। जिस साधुने चिरकालतक तप करके समताका अभ्यास किया हो उस सर्व साम्यभावके भंडारको यह क्रोधकी चिनगारी भस्म कर डालती है, अतएव हरएक साधु या श्रावकका परम धर्म है कि वह क्रोधकी अग्निको कभी भड़कने न दे, उन निमित्तोंसे बचें जिनसे क्रोधकी वृद्धि होती है । शांतभावमें सुस्थित रहनेसे जीवन सदा सुखी रहता है। परलोकमें भी सुखी जीवन प्राप्त होता है। जो क्रोधको जीते वही जिन है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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