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________________ गुण पूज्य होते हैं १२९ अधर्मसे, असदाचारसे व परको दुःख पहुँचानेसे नीच माना जाता है । अतएव हरएक नीच या ऊँचकुलीको उत्तम गुणोंकी प्राप्तिका यत्न करना योग्य है । सद्वृत्तः पूज्यते देवैराखंडलपुरःसरैः । असवृत्तस्तु लोकेस्मिन्निन्द्यतेऽसौ सुतैरपि ॥ २७५॥ अन्वयार्थ - (सवृत्तः) उत्तम प्रशंसनीय चारित्रका धारी मानव ( आखण्डलपुरःसरैः देवैः) इन्द्रादि देवोंके द्वारा ( पूज्यते) मान-सन्मानको पाता है ( अस्मिन् लोके) इस लोकमें (असौ असद्वृत्तः ) जो कोई असदाचारी है, निन्द्य आचारका पालनेवाला है वह (सुतैः अपि निंद्यते) पुत्रके द्वारा भी निन्दित होता है । भावार्थ - इन्द्रादिक देव भी उसीकी भक्ति या प्रतिष्ठा करते हैं जो धर्मात्मा है व चारित्रवान है । अधर्मी पापीकी देव भी निन्दा करते हैं । अतएव मानवोंको इस लोकमें प्रशंसापात्र होने और परलोकमें सुख पानेके लिए सदा ही सदाचारी, धर्मात्मा व परोपकारी होना योग्य हैं । मोक्षमार्गीको रत्नत्रयधर्मका साधन बड़े भावसे करना चाहिए | चारित्रं तु समादाय ये पुनर्भोगमागताः । ते साम्राज्यं परित्यज्य दास्यभावं प्रपेदिरे ॥ २७६ ॥ अन्वयार्थ - (ये तु चारित्रं समादाय) जो कोई चारित्रको पाकरके ( पुनः भोगम् आगताः) फिर लौटकर भोगोंमें फँस जाते हैं (ते साम्राज्यं परित्यज्य दास्यभावं प्रपेदिरे) वें चक्रवर्तीके राज्यको छोड़कर मानो दासपनेको प्राप्त करते हैं । भावार्थ-चारित्रके पालनेसे इस लोकमें भी यश, पूज्यपना, और सुखका लाभ होता है तथा परलोकमें भी शुभगति या मोक्षकी प्राप्ति होती है । जो कोई गृहस्थ आत्मकल्याणके लिए गृहको छोड़कर साधु हो जावे, फिर भोगोंकी लालसासे साधुपना छोड़कर गृहस्थ बन जावे तो यह ऐसा ही कहलायेगा जैसे कोई चक्रवर्तीपना छोडकर दासपना धारण कर ले | संयमका लाभ बड़े ही पुण्यसे होता है । अतृप्तिकारी भोगोंके पीछे संयमको नष्ट करना बड़ा भारी दोष है । शीलसंधारिणां पुंसां मनुष्येषु सुरेषु च । आत्मा गौरवमायाति परत्रेह च सन्ततम् ॥ २७७॥ अन्वयार्थ - ( शीलसंधारिणां पुंसा आत्मा) चारित्रको पालनेवाले पुरुषोंका आत्मा (परत्र इह च) परलोकमें तथा इस लोकमें (मनुष्येषु सुरेषु च ) मनुष्योंमें तथा देवोंमें (संततं) सदा (गौरवम् आयाति) पूज्यताको प्राप्त होता है । ११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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