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________________ १३० सारसमुच्चय __ भावार्थ-जगतमें चारित्र ही पूजने योग्य है । जो चारित्रवान होता है, उसकी प्रतिष्ठा इस लोकमें होती है तथा परलोकमें भी वे शुभगतिको प्राप्त होते हैं, बहुधा देवगतिमें जाते हैं । वहाँ उत्तम देवपद पाते हैं तब बहुतसे देव उनकी प्रतिष्ठा करते हैं । अतएव सदा ही हितकारी जो चारित्र है उसको भले प्रकार पालकर नरजन्मको सफल करना योग्य है । यह नरजन्म चारित्र-हीन बिताया जायेगा तो पुनः मिलना बहुत ही दुर्लभ हो जायेगा। आपदो हि महाघोराः सत्यसाधनसङ्गतैः । निस्तीर्यन्ते महोत्साहैः शीलरक्षणतत्परैः ॥२७८॥ अन्वयार्थ-(सत्यसाधनसंगतैः) जो साधुजन सत्य मार्गका साधन करते हैं, (महोत्साहैः) बड़े भारी उत्साहवान है, (शीलरक्षणतत्परैः) चारित्रके रक्षण तत्पर हैं वे (महाघोराः आपदः हि निस्तीर्यन्ते) वे महान घोर आपत्तियोंसे भी पार हो जाते हैं। भावार्थ-जैसे साहसी पुरुष तैरकर नदी पार कर लेता हैमहाभयानक जंगलको भी पार कर लेता है, वैसे महासाहसी, चारित्ररक्षामें तत्पर साधु मोक्षमार्गमें बड़े उत्साहसे चलते हैं और घोर आपत्ति, संकट तथा उपसर्ग पड़नेपर उनको शांतिसे सहन करके मोक्षकी सिद्धि कर लेते हैं। वरं तत्क्षणतो मृत्युः शीलसंयमधारिणाम् । न तु सच्छीलभङ्गेन कल्पान्तमपि जीवितम् ॥२७९॥ अन्वयार्थ-(शीलसंयमधारिणाम् तत्क्षणतः मृत्युः वरं) शील संयमके धारी साधुओंका संयम पालते हुए शीघ्र मरना अच्छा है (तु) परन्तु (सच्छीलभंगेन) सम्यक् शीलको भंग करके (कल्पांतम् अपि जीवितं न वरं) कल्पोंकाल तक जीना भी श्रेष्ठ नहीं हैं। भावार्थ-प्राणोंकी रक्षा संयमके पालनके लिए है अतएव प्राणांतपर्यंत संयमको दृढतासे पालना चाहिए। यदि संयम घातका अवसर हो तो समाधिमरण कर लेना चाहिए । परन्तु संयमको खंडन करके बहुत जीना ठीक नहीं है । यदि बहुत जीए भी परन्तु सदाचार-विहीन बने रहे तो जीनेसे न जीना ही अच्छा है। धनहीनोऽपि शीलाढ्यः पूज्यः सर्वत्र विष्टपे । शीलहीनो धनाढ्योपि न पूज्यः स्वजनेष्वपि ॥२८०॥ अन्वयार्थ-(सर्वत्र विष्टपे) सर्व जगह इस लोकमें (शीलाढ्यः) चारित्रवान पुरुष (धनहीनः अपि) धनहीन भी हो तो भी (पूज्यः) आदरके योग्य है किन्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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