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सारसमुच्चय __अन्वयार्थ-(रागादयो महादोषाः ते खलाः बुधैः गदिताः) रागद्वेषादि महान दोष हैं, ये ही दुष्ट हैं ऐसा ज्ञानियोंने कहा है । (तत्त्वविद्भिः नरैः सदा तेषां समाश्रयः त्याज्यः) तब तत्त्वज्ञानियोंको उचित है कि वे उनका संग सदाके लिए छोड़ दें।
भावार्थ-आत्माके ज्ञान, सम्यक्त्व, वीर्य, चारित्र, सुख आदि गुणोंको मलिन करनेवाले रागद्वेषादि कषाय हैं। ये ही महान दुष्ट हैं, वैरी हैं। जितना-जितना इनका प्रसंग किया जाता है आत्मा बंधको प्राप्त होता है। संसारमें भ्रमण करानेवाले ये ही दुष्ट रागद्वेष मोह हैं । अतएव तत्त्वज्ञानी महात्माओंको कर्मबंधसे बचनेके लिए व सुखशांति पानेके लिए इनकी संगति छोड़कर समताभावकी संगति करनी चाहिए । वीतरागतामें तन्मय रहना योग्य है।
गुण पूज्य होते हैं गुणाः सुपूजिता लोके गुणाः कल्याणकारकाः । गुणहीना हि लोकेऽस्मिन् महान्तोऽपि मलीमसाः॥२७३॥
अन्वयार्थ-(गुणाः लोके सुपूजिताः) गुण ही लोकमें पूजे जाते हैं, (गुणाः कल्याणकारकाः) गुण ही कल्याणकारी होते हैं, (हि अस्मिन लोके) निश्चयसे इस लोकमें (महान्तः अपि गुणहीनाः मलीमसाः) महान पुरुष भी यदि गुणहीन हो तो मलिन या नीच माने जाते हैं।
भावार्थ-जगतमें कोई व्यक्ति माननीय नहीं है। व्यक्तिके भीतर यदि गुण हों तो उसकी मान्यता होती है । गुणोंका आदर जगतमें होता है । यदि कोई बड़े कुलमें पैदा हुआ हो, धनवान हो परन्तु गुणरहित हो, विद्याहीन हो, धर्महीन हो तो वह जगतमें माननीय नहीं होता है । अतएव हरएकको गुणोंकी प्राप्ति करनी योग्य है ।
सद्गुणैः गुरुतां याति कुलहीनोऽपि मानवः । निर्गुणः सुकुलाढ्योऽपि लघुतां याति तत्क्षणात् ॥२७४॥
अन्वयार्थ-(कुलहीनः अपि मानवः) कुलहीन मनुष्य भी क्यों न हो (सद्गुणैः गुरुतां याति) यदि उत्तम गुणोंसे विभूषित हो तो महानपनेको प्राप्त हो जाता है, और (सकुलाढ्यः अपि) यदि कोई ऊँचकुलका धारी हो (निर्गुणः) परन्तु गुणरहित हो तो वह (तत्क्षणात् लघुतां याति) उसी समय हलका माना जाता है ।
भावार्थ-नीच कुली भी धर्म, सदाचार, परोपकार आदि गुणोंके कारण जगतमें माननीय हो जाता है जब कि उत्तम कुलवाला भी मानव
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