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________________ सत्संगति कुसंसर्गः सदा त्याज्यो दोषाणां प्रविधायकः । सगुणोऽपि जनस्तेन लघुतां याति तत्क्षणात् ॥ २६९॥ अन्वयार्थ - ( दोषाणां प्रविधायकः ) दोषोंकी उत्पन्न करनेवाली ( कुसंसर्गः ) कुसंगतिको (सदा त्याज्याः) सदा छोडना योग्य है, (तेन) उस कुसंगति से (सगुणः अपि जनः) गुणी मानव भी ( तत्क्षणात् लघुतां याति) क्षणभरमें हलका हो जाता है । भावार्थ- परिणामोंकी उच्चता रखनेके लिए धर्मात्मा और ज्ञानी पुरुषोंकी संगति करनी योग्य है । दुराचारी, मिथ्यादृष्टि, व्यसनी, रागी पुरुषोंकी संगतिसे महान सदाचारी व गुणवान पुरुष भी कलंकित हो जाता है । संगतिमें दोषोंकी छाप पड जाती है । अतएव सदा ही संतोंकी संगति वांछनीय है । सत्सङ्गो हि बुधैः कार्यः सर्वकालसुखप्रदः । तेनैव गुरुतां याति गुणहीनोऽपि मानवः ॥२७०॥ १२७ अन्वयार्थ- (बुधैः सर्वकालसुखप्रदः सत्संगः हि कार्यः) बुद्धिमानों को सदा सुखदायी सत्संगति ही करना योग्य है, (तेन एव) उसीसे ही ( गुणहीनः अपि मानवः गुरुतां याति) गुणरहित पुरुष भी महानपनेको प्राप्त हो जाता है । भावार्थ - धर्मात्मा, सज्जन, सदाचारी व ज्ञानी मानवोंकी संगति सदा सुख देनेवाली होती है । ऐसी संगतिमें बैठनेसे गुणहीनके अवगुण चले जाते हैं और गुणोंकी प्राप्ति हो जाती है। मोक्षमार्गमें जो चलना चाहे उसके लिए ऐसे देव-गुरु-शास्त्रोंकी संगति रखनी योग्य है जिससे वीतराग विज्ञानरूप महा धर्मकी छाप हृदयपर पड़े । साधूनां खलसङ्गेन चेष्टितं मलिनं भवेत् । सैंहिकेयसमासक्त्या छागानामपि तत् क्षयः ॥२७१॥ अन्वयार्थ - (साधूनां चेष्टितं खलसङ्गेन मलिनं भवेत् ) साधुओंका चारित्र दुष्टकी संगति से मैला हो जाता है, जैसे (सैंहिकेय समासक्त्या) सिंहके बच्चेकी निकटतासे ( छागानां अपि तत् क्षयः) बकरोंका भी नाश हो जाता है । भावार्थ-साधुओंको सदा साधुओंकी, सज्जनोंकी, धर्मात्माओंकी ही संगति करनी योग्य है । यदि वे दुष्टोंकी, दुराचारियोंकी, विषयलम्पटियोंकी संगति करेंगे तो साधुओंके चारित्रमें कमी आ सकती है । सिंहके बच्चोंके साथ बकरोंका नाश होना स्वाभाविक है । रागादयो महादोषाः खलास्ते गदिताः बुधैः । तेषां समाश्रयस्त्याज्यस्तत्त्वविद्भिः सदा नरैः ॥२७२॥ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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