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सारसमुच्चय सत्य धर्मका उपदेश देते हैं तथा पाँचों इन्द्रिय व मनको वशमें रखनेवाले हैं तथा सामायिकादि संयमोंको भले प्रकार पालते हैं, ऐसे ही महात्मा उत्तम पात्र हैं जिनको बड़ी भक्तिसे दान करके गृहस्थको अपना जन्म सफल मानना चाहिए।
परीषहजये शक्तं शक्तं कर्मपरिक्षये । ज्ञानध्यानतपोभूषं 'शुद्धाचरणपरायणं ॥२०३॥ प्रशान्तमानसं सौख्यं प्रशान्तकरणं शुभं । प्रशान्तारिमहामोहं कामक्रोधनिसूदनम् ॥२०४॥ निन्दास्तुतिसमं धीरं शरीरेऽपि च निस्पृहं । जितेन्द्रियं जितक्रोधं जितलोभमहाभटम् ॥२०५॥ रागद्वेषविनिर्मुक्तं सिद्धिसङ्गमनोत्सुकम् । ज्ञानाभ्यासरतं नित्यं नित्यं च प्रशमे स्थितम् ॥२०६॥ एवं विधं हि यो दृष्ट्वा स्वगृहाङ्गणमागतम् ।
मात्सर्यं कुरुते मोहात् क्रिया तस्य न विद्यते ॥२०७॥ अन्वयार्थ-(परीषहजये शक्तं) जो बाईस परिषहोंके जीतनेमें समर्थ हों, (कर्मपरिक्षये शक्तं) तथा कर्मोंके क्षय करनेके लिए उद्यमशील हों, (ज्ञानध्यानतपोभूषं) जिनका आभूषण ज्ञान, ध्यान, तप हो, (शुद्धाचरणपरायणं) जो शुद्ध चारित्रके पालनेमें लवलीन हों, (प्रशान्तमानसं) जिनका मन शान्त हो, (सौख्यं) जो आनंदमय हों, (प्रशान्तकरणं) जिनकी पाँचों इन्द्रियोंकी इच्छाएँ शांत हों, (शुभं) जो शुभ आचरणोंके कर्ता हों, (प्रशांतारिमहामोहं कामक्रोधनिसूदनम्) जो महान मोहरूपी शत्रुको शांत कर चुके हों तथा काम क्रोधादिके नाशक हों (निन्दास्तुतिसम) जो अपनी निन्दा और स्तुतिमें एकसमान भावके धारी हों (धीरं) क्षमाशील धैर्यवान हों (शरीरेऽपि च निस्पृह) जो शरीरसे भी विरागी हों (जितेन्द्रिय) जो इन्द्रियोंके विजयी हों (जितक्रोधं) जो क्रोधको जीतनेवाले हों (जितलोभमहाभटं) जिन्होंने लोभरूपी महान योद्धाको जीत लिया हो (रागद्वेषविनिर्मुक्तं) और रागद्वेषसे रहित हों (सिद्धिसङ्गमनोत्सुकम्) सिद्धगतिकी संगतिके पानेके लिए मनमें बड़े उत्सुक हों, (नित्यं ज्ञानाभ्यासरतं) नित्य शास्त्रज्ञानके अभ्यासमें रत हों, (नित्यं च प्रशमे स्थितम्) नित्य ही शांतिमें रमते हों, (एवं विधं स्वगृहाङ्गणमागतं दृष्ट्रा) ऐसे महान योगीको अपने घरके आँगन तक आये हुए देखकर (यः मोहात् मात्सर्यं कुरुते) जो कोई मोहके वशीभूत होकर उनके
पाठान्तर-१. शुद्धाचारपरायणं ।
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