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________________ १०१ मोक्षमार्ग-पथिक साथ ईर्षा करे, उनका सत्कार न करे, उनको दान न दे (तस्य क्रिया न विद्यते) वह श्रावककी क्रियासे रहित है। भावार्थ-ऊपर लिखित गुणोंसे विशिष्ट महान वैरागी, निःस्पृही, आत्मज्ञान और ध्यानमें रत निर्ग्रन्थ साधुका जो सन्मान नहीं करता है वह स्वयं मिथ्यादृष्टि है, धर्मक्रियाओंसे शून्य है, वह दानका मार्ग नहीं जानता । मोक्षमार्ग-पथिक मायां निरासिकां कृत्वा तृष्णां च परमौजसः । रागद्वेषौ समुत्सार्य प्रयाता पदमक्षयम् ॥२०८॥ अन्वयार्थ-(परमौजसः) परम तेजस्वी वीर पुरुष (मायां च तृष्णां निरासिकां कृत्वा) मायाचार और तृष्णाको दूर करके (रागद्वेषौ समुत्सार्य) और रागद्वेषको नाश करके (अक्षयम् पदम् प्रयाताः) अविनाशी मोक्षपदको पहुँचे हैं। __भावार्थ-संसारका मूल कारण तृष्णा है, विषयोंकी लोलुपता है। इसीके हेतु प्राणी मायाचार करते हैं तथा इसी हेतु इष्ट पदार्थोंमें राग और अनिष्ट पदार्थोंमें द्वेष होता है । ये रागद्वेष ही कर्मबंधके कारण हैं। इन्हींके नाशसे कर्मोंका क्षय होता है। सम्यग्दृष्टि धीर-वीर पुरुष साहस करके आत्मध्यानका अभ्यास करते हैं। क्षणकश्रेणीपर आरूढ होकर चार घातियाकर्मोंका नाश करके केवली हो जाते हैं। फिर शेष चार अघातिया कर्मोंका भी क्षयकर शुद्ध और कृतकृत्य हो अविनाशी स्वात्मस्थितिको प्राप्त कर लेते है। धीराणामपि ते धीरा ये निराकुलचेतसः । कर्मशत्रुमहासैन्यं ये जयन्ति तपोबलात् ॥२०९॥ अन्वयार्थ-(ये निराकुलचेतसः) जो आकुलता रहित चित्तको धारण करनेवाले हैं (ये तपोबलात कर्मशत्रमहासैन्यं जयंति) तथा जो तपके बलसे कर्मशत्रुओंकी महासेनाको जीत लेते हैं, (ते धीराणाम् अपि धीराः) वे धीर पुरुषोंमें भी बड़े धीर हैं। भावार्थ-जगतके शत्रुओंको जीतना कोई वीरताकी बात नहीं है। धन्य हैं वे महापुरुष जो निग्रंथ होकर आगमानुसार चारित्र पालकर बाईस परीषहोंको सहते हुए परम क्षमाभावके साथ तप करते हैं और वीतरागता व समतासे अनुराग करते हुए आत्मानंदका भोग करते हैं । उन्हींके कर्मकी निर्जरा होती है और नवीन कर्मोंका संवर होता है । वे मोहको पददलित करते हुए निर्मोहभावमें बढ़ते हुए शुद्ध परमात्मा हो जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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