SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तम पात्र साधु ९९ भावार्थ-उत्तम पात्र साधुओंके मनमें यह दृढ़ प्रतिज्ञा होती है कि हम कभी शांतभावका नाश नहीं करेंगे, अनेक उपसर्गोंके पड़नेपर भी हम क्रोध नहीं करेंगे, क्षमाको नहीं त्यागेंगे । जो आत्माके गुणोंको ही अपना धन समझते हैं इसलिए वे सर्व इन्द्रियोंके विषयोंके पदार्थोंसे वैरागी हैं। सर्व पदार्थोंसे पूर्णतया असंग हैं-रहित हैं तथा जिन साधुओंने इस बातपर कमर कसी है कि वे कर्मरूपी शत्रुओंको अवश्य जीतकर मुक्तिका राज्य प्राप्त करेंगे, ऐसे ही वीर निःस्पृही वीतरागी साधु ही उत्तम पात्र होते हैं। निःसंगिनोऽपि वृत्ताढ्या निस्नेहाः सुश्रुतिप्रियाः । अभूषाऽपि तपोभूषास्ते पात्रं योगिनः सदा ॥२०१॥ अन्वयार्थ-(निःसंगिनः अपि) जो परिग्रहरहित होनेपर भी (वृत्ताट्याः) चारित्रके धारी हैं (निःस्नेहाः) जगतके पदार्थोंसे स्नेहरहित हैं तो भी (सुश्रुतिप्रियाः) जिनवाणीके प्रेमी हैं (अभूषाऽपि) भूषणरहित हैं तो भी (तपोभूषाः) तपरूपी आभूषणके धारी हैं (ते योगिनः) ऐसे योगी (सदा पात्र) सदा धर्मके पात्र हैं। भावार्थ-जैन दिगम्बर साधु उत्तम पात्र हैं, जिन्होंने वस्त्रादि सर्व परिग्रहका त्याग कर दिया है तथापि पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकार चारित्रके धनी हैं । स्त्री-पुत्र- कुटुम्बादिके स्नेहको छोड चके हैं तो भी आत्मज्ञानकी बुद्धिके हेतु सच्चे शास्त्रोंके पठन-पाठन-मननचितवनमें बड़ी ही प्रीति रखते हैं । यद्यपि कोई गहना उनके शरीरपर नहीं है तो भी उपवास आदि बारह तपोंके साधनसे विभूषित हैं। ऐसे ही योगी उत्तम पात्र हैं। यैर्ममत्वं सदा त्यक्तं स्वकायेऽपि मनीषिभिः । ते पात्रं संयतात्मानः सर्वसत्त्वहिते रताः॥२०२॥ अन्वयार्थ-(येः मनीषिभिः) जिन महात्माओंने (स्वकाये अपि) अपने शरीर परसे भी (ममत्वं) ममता (सदा त्यक्तं) सदाके लिए छोड दी है (संयतात्मानः) ऐसे संयमी पात्र (सर्वसत्त्वहिते रताः) जो सर्व प्राणी मात्रके हितमें लवलीन हैं (ते पात्र) वे ही पात्र हैं। भावार्थ-निग्रंथ साधु उत्तम पात्र हैं जो शरीरके रागके भी त्यागी हैं। शरीर संयमका साधक है। इसके सहारेसे तप किया जाता है इसलिए शरीरको जो कुछ रूखा-सूखा भोजन मिल जावे उसे देकर पालते हैं। जो ऐसे दयावान हैं कि एकेन्द्रिय स्थावर वृक्षादिको भी कष्ट नहीं देते हैं, देखकर चलते हैं, उठाते-धरते हैं, सर्व प्राणीमात्रके हितैषी हैं, सर्व जीवोंको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy