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५८ ] - वृहद्रव्यसंग्रह
. [गाथा २१ नं भवति तह्य संख्यातप्रदेशेष्वसंख्यातपरमाणूनामेव व्यवस्थानं, तथा सति सर्वे जीवा यथा शुद्धनिश्चयेन शक्तिरूपेण निरावरणाः शुद्धबुद्धैकस्वभावास्तथा व्यक्तिरूपेण व्यवहारनयेनापि, न च तथा प्रत्यक्षविरोधादागमविरोधाच्चेति । एवमाकाशद्रव्यप्रतिपादनरूपेण सूत्रद्वयं गतम् ।। २० ॥ अथ निश्चयव्यहारकालस्वरूपं कथयति :
दव्वपरिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो। परिणामादीलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठो ॥२१॥ द्रव्यपरिवर्तनरूपः यः सः कालः भवेत् व्यवहारः।
परिणामादिलक्ष्यः वर्तनालक्षणः च परमार्थः ॥ २१ ॥ व्याख्या- "दव्वपरिवट्टरूवो जो" द्रव्यपरिवरूपो यः “सो कालो हवेइ ववहारो" स कालो भवति व्यवहाररूपः। स च कथंभूतः ? “परिणामादीलक्खो" परिणामक्रियापरत्वापरत्वेन लक्ष्यत इति परिणामादिलक्ष्यः । इदानीं निश्चयकालः कथ्यते "वट्टणलक्खो य परमोटो" वर्तनालक्षणश्च परमार्थकाल इति । तद्यथा
जीव पुद्गलादिक के भी समा जाने में कुछ विरोध नहीं आता । यदि इस प्रकार अवगाहनशक्ति न होवे तो लोक के असंख्यात प्रदेशों में असंख्यात परमाणुओं का ही निवास हो सकेगा। ऐसा होने पर जैसे शक्ति रूप शुद्ध निश्चयनय से सब जीव अावरणरहित तथा शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव के धारक हैं; वैसे ही व्यक्ति रूप व्यवहारनय से भी हो जायें, किन्तु ऐसे हैं नहीं। क्योंकि ऐसा मानने में प्रत्यक्ष और आगम से विरोध है। इस तरह आकाश द्रव्य के निरूपण से दो सूत्र समाप्त हुए ॥ २०॥
अब निश्चयकाल तथा व्यवहारकाल के स्वरूप का वर्णन करते हैं :
गाथार्थ :-जो द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक, परिणामादि लक्षण वाला है, सो व्यवहारकाल है, वर्त्तना-लक्षण वाला जो काल है वह निश्चय काल है ।। २१ ॥
वृत्त्यर्थ :-“दव्वपरिवरूवो जो" जो द्रव्य परिवर्तन रूप है 'सो कालो हवेइ ववहारो' वह व्यवहार रूप काल होता है। और वह कैसा है ? “परिणामादीलक्खो" परिणाम; क्रिया; परत्व; अपरत्व से जाना जाता है; इसलिये परिणामादि से लक्ष्य है। अब निश्चयकाल को कहते हैं-"बट्टणलक्खो य परमट्ठो” जो वर्तनालक्षण वाला है वह परमार्थ (निश्चय) काल है । विशेष-जीव तथा पुद्गल का परिवर्तनरूप जो नूतन तथा
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