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________________ गाथा २० ] प्रथमाधिकारः [ ५७ व्याख्या-धर्माधर्मकालपुद्गलजीवाश्च सन्ति यावत्याकाशे स लोकः । तथा चोक्तं-लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोक इति । तस्माल्लोकाकाशात्परतो बहिर्भागे पुनरनन्ताकाशमलोक इति । अत्राह सोमाभिधानो राजश्रेष्ठी । हे भगवन् ! केवलज्ञानस्यानन्तभागप्रमितमाकाशद्रव्यं तस्याप्यनन्तभागे सर्वमध्यमप्रदेशे लोकस्तिष्ठति । स चानादिनिधनः केनापि पुरुषविशेषेण न कृतो न हतो न धृतो न च रक्षितः। तथैवासंख्यातप्रदेशस्तत्रासंख्यातप्रदेशे लोकेऽनन्तजीवास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः पुद्गलाः, लोकाकोशप्रमितासंख्येयकालाणुद्रव्याणि, प्रत्येकं लोकाकाशप्रमाणं धर्माधर्मद्वयमित्युक्तलक्षणाः पदार्थाः कथमवकाशं लभन्त इति ? भगवानाह-एकप्रदीपप्रकाशे नानाप्रदीपप्रकाशवदेकगूढरसनागगद्याणके बहुसुवर्णवद्भस्मघटमध्ये सूचिकोष्ट्रदुग्धवदित्यादिदृष्टान्तेन विशिष्टावगाहनशक्तिवशादसंख्यातप्रदेशेऽपि लोकेऽवस्थानमवगाहो न विरुध्यते । यदि पुनरित्थंभूतावगाहनशक्ति उसी लोकाकाश को विशेष रूप से दृढ़ करते हैं : गाथार्थ :-धर्म; अधर्म; काल; पुद्गल और जीव ये पाँचों द्रव्य जितने आकाश में हैं वह "लोकाकाश' है और उस लोकाकाश के बाहर "अलोकाकाश” है ।। २० ॥ वृत्त्यर्थ :-धर्म; अधर्म; काल; पुद्गल और जीव जितने आकाश में रहते हैं उतने आकाश का नाम “लोकाकाश” है। ऐसा कहा भी है कि जहाँ पर जीव आदि पदार्थ देखने में आते हैं वह लोक है। उस लोकाकाश से बाहर जो अनन्त आकाश है वह "अलोकाकाश” है। यहाँ सोम नामक राजश्रेष्ठी प्रश्न करता है कि हे भगवन ! केवल ज्ञान के अनन्तवें भाग प्रमाण आकाश द्रव्य है और उस आकाश के भी अनन्तवें भाग में, सबके बीच में लोक है और वह लोक (काल की दृष्टि से) आदि अन्त रहित है; न किसी का बनाया हुआ है; न किसी से कभी नष्ट होता है, न किसी के द्वारा धारण किया हुआ है और न कोई उसकी रक्षा करता है । वह लोकाकाश असंख्यात प्रदेशों का धारक है । उस असंख्यात प्रदेशी लोक में असंख्यात प्रदेशी अनन्त जीव, उनसे भी अनन्त गुणे पुद्गल, लोकाकाश प्रमाण असंख्यात कालाणु लोकाकाश प्रमाण धर्मद्रव्य तथा अधर्मद्रव्य कैसे रहते हैं ? - भगवान् उत्तर में कहते हैं-एक दीपक के प्रकाश में अनेक दीपों का प्रकाश समा जाता है, अथवा एक गूढ़ रस विशेष से भरे शीसे के बर्तन में बहुत सा सुवर्ण समा जाता है; अथवा भस्म से भरे हुए घट में सुई और ऊँटनी का दूध आदि समा जाते हैं; इत्यादि दृष्टान्तों के अनुसार विशिष्ट अवगाहन शक्ति के कारण असंख्यात प्रदेश वाले लोक में पूर्वोक्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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