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________________ ५६ ] वृहद्रव्यसंग्रहः [गाथा २० काशभेदेन द्विविधमिति । इदानीं विस्तर :-सहजशुद्धसुखामृतरसास्वादेन परमसमरसीभावेन भरितावस्थेषु केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतेषु लोकाकाशप्रमितासंख्येयस्वकीयशुद्धप्रदेशेषु यद्यपि निश्चयनयेन सिद्धास्तिष्ठन्ति, तथाप्युपचरितासद्भूतव्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठन्तीति भण्यते इत्युक्तोऽस्ति । स च ईदृशो मोक्षो यत्र प्रदेशे परमध्यानेनात्मा स्थितः सन् कर्मरहितो भवति, तत्रैव भवति नान्यत्र । ध्यानप्रदेशे कर्मपुद्गलान् त्यक्त्वा ऊर्ध्वगमनस्वभावेन गत्वा मुक्तात्मानो यतो लोकाग्र तिष्ठन्तीति तत-उपचारेण लोकागमपि मोक्षः प्रोच्यते, यथा तीर्थभूतपुरुषसेवितस्थानमपि भूमिजलादिरूपमुपचारेण तीर्थ भवति । सुखबोधार्थ कथितमास्ते । यथा तथैव सर्वद्रव्याणि यद्यपि निश्चयनयेन स्वकीयप्रदेशेषु तिष्ठन्ति तथाप्युपचरितासद्भूतव्यवहारेण लोकाकाशे तिष्ठन्तीत्यभिप्रायो भगवतां श्रीनेमिचंद्रसिद्धान्तदेवानामिति ॥ १६ ॥ तमेव लोकाकाशं विशेषेण द्रढयति : धम्माऽधम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये । आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्ति ।। २० ॥ धर्माधर्मों कालः पुद्गल जीवाः च सन्ति यावतिके । आकाशे सः लोकः ततः परतः अलोकः उक्तः ॥२०॥ कहते हैं-स्वाभाविक, शुद्ध सुखरूप अमृत रस के आस्वाद रूप परमसमरसी भाव से परिपूर्ण तथा केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों के आधारभूत जो लोलाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेश अपनी आत्मा के हैं; उन प्रदेशों में यद्यपि निश्चयनय की अपेक्षा से सिद्ध जीव रहते हैं, तो भी उपचरित असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से सिद्ध मोक्षशिला (ऊपरी तनुवात वलय) में रहते है, ऐसा कहा जाता है। ऐसा पहले कह चुके हैं। जिस स्थान में आत्मा परमध्यान से कर्मरहित होता है, ऐसा मोक्ष वहाँ ही है; अन्यत्र नहीं। ध्यान करने के स्थान में कर्मपुद्गलों को छोड़कर तथा ऊर्ध्वगमन स्वभाव से गमन कर मुक्त जीव कि लोक के आग्रभाग में जाकर निवास करते हैं इस कारण लोक का अग्रभाग भी उपचार से मोक्ष कहलाता है, जैसे कि तीर्थभूत पुरुषों द्वारा सेवित भूमि, पर्वत, गुफा जल आदि स्थान भी उपचार से तीर्थ होते हैं । यह वर्णन सुगमता से समझाने के लिये किया है । जैसे सिद्ध अपने प्रदेशों में रहते हैं उसी प्रकार निश्चयनय से सभी द्रव्य यद्यपि अपने-अपने प्रदेशों में रहते हैं; तो भी उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से लोकाकाश में सब द्रव्य रहते हैं। ऐसा भगवान् श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव का अभिप्राय जानना चाहिए ॥ १६ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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