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________________ गाथा २१] प्रथमाधिकारः जीवपद्गलयोः परिवत्तों नवजीर्णपर्यायस्तस्य या समयघटिकादिरूपा स्थितिः स्वरूपं यस्य स भवति द्रव्यपर्यायरूपो व्यवहारकालः। तथाचोक्त संस्कृतप्राभृतेन"स्थितिः कालसंज्ञका" तस्य पर्यायस्य सम्बन्धिनी याऽसौ समयघटिकादिरूपा स्थिति सा व्यवहारकालसंज्ञा भवति, न च पर्याय इत्यभिप्रायः। यत एव पर्यायसम्बन्धिनी स्थितिर्व्यवहारकालसंज्ञां भजते तत एव जीवपुद्गलसम्बन्धिपरिणामेन पर्यायेण तथैव देशान्तरचलनरूपया गोदोहनपाकादिपरिस्पन्दलक्षरूपया वा क्रियया तथैव दूरासन्नचलनकालकृतपरत्वापरत्वेन च लक्ष्यते ज्ञायते यः, स परिणामक्रियापरत्वापरत्वलक्षण इत्युच्यते । अथ द्रव्यरूपनिश्चयकालमाह । स्वकीयोपादानरूपेण स्वयमेवपरिणममानानां पदार्थानां कुम्भकारचक्रस्याधस्तनशिलावत्, शीतकालाध्ययने अग्निवत् , पदार्थपरिणतेयंत्सहकारित्वं सा वतना भण्यते । सैव लक्षणं यस्य स वत्त नालक्षणः कालाणुद्रव्यरूपो निश्चयकालः, इति व्यवहारकालस्वरूपं निश्चयकालस्वरूपं च विज्ञेयम् । कश्चिदाह "समयरूप एव निश्चयकालस्तस्मादन्यः कालाणुद्रव्यरूपो निश्चय जीर्ण पर्याय है- उस पर्याय की जो समय, घड़ी आदि रूप स्थिति है; वह स्थिति है स्वरूप जिसका, वह द्रव्यपर्याय रूप व्यवहारकाल है । ऐसा ही संस्कृत-प्राभृत में भी कहा है-"जो स्थिति है, वह कालसंज्ञक है" । सारांश यह है-द्रव्य की पर्याय से सम्बन्ध रखने वाली जो यह समय, घड़ी आदि रूप स्थिति है; वह स्थिति ही "व्यवहारकाल" है; वह पर्याय व्यवहारकाल नहीं है । और क्योंकि पर्यायसम्बन्धिनी स्थिति व्यवहारकाल" है इसी कारण जीव व पुद्गल के परिणाम रूप पर्याय से तथा देशान्तर में आने-जाने रूप अथवा गाय दुहनी व रसोई करना आदि हलन-चलन रूप क्रिया से तथा दूर या समीप देश में चलन रूप कालकृत परत्व तथा अपरत्व से यह काल जाना जाता है, इसीलिये वह व्यवहारकाल परिणाम; क्रिया; परत्व तथा अपरत्व लक्षण वाला कहा जाता है। अब द्रव्य रूप निश्चयकाल को कहते हैअपने-अपने उपादान रूप कारण से स्वयं परिणमन करते हुए पदार्थों को, जैसे कुम्भकार के चाक के भ्रमण में उसके नीचे की कीली सहकारिणी है, अथवा शीतकाल में छात्रों को पढ़ने के लिये अग्नि सहकारी है, उसी प्रकार जो पदार्थों के परिणमन में सहकारता है, उसको "वर्त्तना” कहते हैं । वह वर्त्तना ही है लक्षण जिसका, वह वर्त्तना लक्षण वाला कालाणु द्रव्य रूप “निश्चयकाल" है । इस तरह व्यवहारकाल तथा निश्चयकाल का स्वरूप जानना चाहिये। यहाँ कोई कहता है कि समय रूप ही निश्चयकाल है; उस समय से भिन्न अन्य कोई कालाणु द्रव्य रूप निश्चयकाल नहीं है; क्योंकि वह देखने में नहीं आता। इसका उत्तर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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