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________________ गाथा १४ ] प्रथमाधिकारः सर्वथैवापरिणामित्वनिषेधार्थमिति । किञ्च विशेषः निश्चलाविनश्वरशुद्धात्मस्वरूपाद्भिन्नं सिद्धानां नारकादिगतिषु भ्रमणं नास्ति कथमुत्पादव्ययत्वमिति ? तत्र परिहारः - श्रागमकथितागुरुलघुषट्स्थानपतितहानिवृद्धिरूपेण येऽर्थ पर्यायास्तदपेक्षया अथवा येन येनोत्पादव्यवधौव्यरूपेण प्रतिक्षणं ज्ञेयपदार्थाः परिणमन्ति तत्परिच्छियाकारेणानीतिवृत्या सिद्धज्ञानमपि परिणमति तेन कारणेनोत्पादव्ययत्वम्, अथवा व्यञ्जनपर्यायापेक्षया संसारपर्यायविनाशः सिद्धपर्यायोत्पादः, शुद्धजीवद्रव्यत्वेन धौम्यमिति । एवं नयविभागेन नवाधिकारै जीवद्रव्यं ज्ञातव्यम् अथवा तदेव बहिरात्मान्तरात्मपरमात्मभेदेन त्रिधा भवति । तद्यथा - स्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नवास्तवसुखात्प्रतिपक्षभूतेनेन्द्रियसुखेनासक्तो बहिरात्मा, तद्विलक्षगोऽन्तरात्मा । अथवा देहरहित निजशुद्धात्मद्रव्यभावनालक्षणभेदज्ञानरहितत्वेन देहादिपरद्रव्येष्वेकत्व भावनापरिणतो बहिरात्मा, तस्मात्प्रतिपक्षभूतोऽन्तरात्मा । अथवा हेयोपादेयविचारकचित्तं, निर्दोषपरमात्मनो भिन्ना रागादयो दोषाः, शुद्ध निषेध के लिये है । यहाँ पर यदि कोई शंका करे -- कि सिद्ध निरन्तर निश्चल अविनश्वर शुद्ध आत्म-स्वरूप से भिन्न नरक आदि गतियों में भ्रमण नहीं करते हैं इसलिये सिद्धों में उत्पाद व्यय कैसे हों ? इसका परिहार यह है कि आगम में कहे गये अगुरुलघु गुण के षट्-हानि वृद्धि रूप से अर्थ पर्याय होती हैं; उनकी अपेक्षा सिद्धों में उत्पाद व्यय है । अथवा ज्ञेय पदार्थ अपने जिस-जिस उत्पाद व्यय धौव्यरूप से प्रति समय परिणमते हैं उन उनके आकार से निवृत्ति से सिद्धों का ज्ञान भी परिणमता है इस कारण भी उत्पाद व्यय सिद्धों में घटित होता है । अथवा सिद्धों में व्यंजन पर्याय की अपेक्षा से संसार पर्याय का नाश और सिद्ध पर्याय का उत्पाद तथा शुद्ध जीव द्रव्यपने से ध्रौव्य है । इस प्रकार नयविभाग से नौ अधिकारों द्वारा जीव द्रव्य का स्वरूप समझना चाहिये । [ ४५ अथवा वही जीव बहिरा त्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा इन भेदों से तीन प्रकार का भी होता है । निज शुद्ध आत्मा के अनुभव से उत्पन्न यथार्थ सुख से विरुद्ध इन्द्रिय सुख में श्रासक्त बहिरात्मा है; उससे विलक्षण अन्तरात्मा है । अथवा देहरहित निज शुद्ध आत्म द्रव्य की भावना रूप भेद-विज्ञान से रहित होने के कारण देह आदि पर द्रव्यों में जो एकत्व भावना से परिणत है ( देह को ही आत्मा समझने वाला ) बहिरात्मा है । बहिरात्मा सेविरुद्ध (निज शुद्ध आत्मा को आत्मा जानने वाला ) अन्तरात्मा है । अथवा य उपादेय का विचार करने वाला जो "चित्त", तथा निर्दोष परमात्मा से भिन्न राग आदि “दोष”, और शुद्ध चैतन्य लक्षण का धारक "आत्मा", इस प्रकार उक्त लक्षण वाले चित्त, दोष, आत्मा इन तीनों में अथवा वीतराग सर्वज्ञकथित अन्य पदार्थों में जिसके परस्पर सापेक्ष नयों द्वारा श्रद्धान और ज्ञान नहीं है वह बहिरात्मा है और उस बहिरात्मा से भिन्न अन्तरात्मा है । ऐसा बहिरात्मा, अन्तरात्मा का लक्षण समझना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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