SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ ] वृहद्रव्यसंग्रह [ गाथा १४ चैतन्यलक्षण आत्मा, इत्युक्तलक्षणेषु चित्तदोषात्मसु त्रिषु वीतरागसर्वज्ञप्रणीतेषु अन्येषु वा पदार्थेषु यस्य परस्परसापेक्षनयविभागेन श्रद्धानं ज्ञानं च नास्ति स बहिरात्मा, तस्माद्विसदृशोऽन्तरात्मेति रूपेण बहिरात्मान्तरात्मनोर्लक्षणं ज्ञातव्यम् । परमात्मलक्षणं कथ्यते—सकलविमलकेवलज्ञानेन येन कारणेन समस्तं लोकालोकं जानाति व्यानोति तेन कारणेन विष्णुभएयते । परमब्रह्मसंज्ञनिजशुद्धात्मभावनाममुत्पन्नसुखामृततृप्तस्य सत उर्वशीरम्भातिलोत्तमाभिर्देवकन्याभिरपि यस्य ब्रह्मचर्यव्रतं न खण्डितं स परमब्रह्म भण्यते । केवलज्ञानादिगुणैश्वर्ययुक्तस्य सतो देवेन्द्रादयोऽपि तत्पदाभिलाषिणः सन्तो यस्याज्ञां कुर्वन्ति स ईश्वराभिधानो भवति । केवलज्ञानशब्दवाच्यं गतं ज्ञानं यस्य स सुगतः, अथवा शोभनमविनश्वरं मुक्तिपदं गतः सुगतः । “शिवं परमकल्याणं निर्वाणं 'ज्ञानमक्षयम् । प्राप्तं मुक्तिपदं येन स शिवः परिकीर्तितः । १।" इति श्लोककथितलक्षणः शिवः। कामक्रोधादिदोषज येनानन्तज्ञानादिगुणसहितो जिनः । इत्यादिपरमागमकथिताष्टोत्तरसहस्रसंख्यनामयाच्यः परमात्मा ज्ञातव्यः । एवमेतेषु त्रिविधात्मसु मध्ये मिथ्यादृष्टिभव्यजीवे बहिरात्मा अब परमात्माका लक्षण कहते हैं क्योंकि पूर्णनिर्मल केवलज्ञान द्वारा सर्वज्ञ समस्त लोकालोकको जानता है या अपने ज्ञान द्वारा लोकालोक में व्याप्त होता है, इस कारण वह परमात्मा "विष्णु" कहा जाता है। परमब्रह्म नामक निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न सुखामृत से तृप्त होने के कारण उर्वशी, तिलोत्तमा, रंभा आदि देवकन्याओं द्वारा भी जिसका ब्रह्मचर्य खंडित न हो सका अतः वह “परम ब्रह्म कहलाता है। केवलज्ञान आदि गुणरूपी ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण जिसके पद की अभिलाषा करते हुए देवेन्द्र आदि भी जिसकी आज्ञापालन करते हैं, अतः वह परमात्मा “ईश्वर" होता है । केवलज्ञान शब्द से वाच्य 'सु' उत्तम ‘गत' यानी ज्ञान जिसका वह “सुगत" है । अथवा शोभायमान अविनश्वर मुक्ति पद को प्राप्त हुआ सो "सुगत" है । तथा "शिव यानी परम कल्याण, निर्वाण एवं अक्षय ज्ञानरूप मुक्तपद को जिसने प्राप्त किया वह शिव कहलाता है। १।" इस श्लोक में कहे गये लक्षण का धारक होने के कारण वह परम मा अनन्त ज्ञान आदि गुणों का धारक 'जिन' कहलाता है। इत्यादि परमागम में कहे हु र एक हजार आठ नामों से कहे जाने योग्य जो है, उसको परमात्मा जानना चाहिये । इस प्रकार ऊपर कहे गये इन तीनों आत्माओं में जो मिथ्या-दृष्टि भव्य जीव है उस में केवल बहिरात्मा तो व्यक्ति रूप से रहता है । १, 'शांतम्' इति पाठान्तरम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy