SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ ] वृहद् द्रव्यसंग्रह [ गाथा १४ विस्तारो न भवति । अपरमप्युदाहरणं दीयते - यथा हस्तचतुष्टयप्रमाणवस्त्रं पुरुषेण मुष्टौ बद्धं तिष्ठति पुरुषाभावे सङ्कोचविस्तारौ वा न करोति, निष्पत्तिकाले साद्रमृन्मयभाजनं वा शुष्कं सज्जलाभावे सति; तथा जीवोऽपि पुरुषस्थानीयजलस्थानीयशरीराभावे विस्तारसंकोचौ न करोति । यत्रैवमुक्तस्तत्रैव तिष्ठतीति ये कंचन वदन्ति, तन्निषेधार्थं पूर्व प्रयोगादसङ्गत्वाद्बन्धच्छेदात्तथा गतिपरिणामात् चेति हेतु चतुष्टयेन तथैवाविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतले पालाम्बुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्चेति दृष्टान्तचतुष्टयेन च स्वभावोद्भवगमनं ज्ञातव्यं तच्च लोकागूपर्यन्तमेव, न च परतो धर्मास्तिकायाभावादिति । 'नित्या' इति विशेषणं तु, मुक्तात्मनां कल्पशतप्रमितकाले गते जगति शून्ये जाते सति पुनरागमनं भवतीति सदाशिववादिनो वदन्ति, तन्निषेधार्थं विज्ञेयम् । 'उत्पादव्ययसंयुक्तत्वं', विशेषां, के आवरणसहित ही रहते हैं । इस कारण जीव के प्रदेशों का संहार नहीं होता, तथा विस्तार व संहार शरीर नामक नामकर्म के अधीन ही है, जीवका स्वभाव नहीं है । इस कारण जीव के शरीर का अभाव होनेपर प्रदेशों का विस्तार नहीं होता । इस विषय में और भी उदाहरण देते हैं कि जैसे किसी मनुष्यकी मुट्ठी के भीतर चार हाथ लम्बा वस्त्र बंधा ( भिंचा) हुआ है, अब वह वस्त्र, मुठ्ठी खोल देने पर पुरुष के अभाव में संकोच तथा विस्तार नहीं करता; जैसा उस पुरुषने छोड़ा वैसाही रहता है । अथवा गीली मिट्टीका बर्तन बनते समय तो संकोच तथा विस्तार को प्राप्त होता जाता है. किन्तु जब वह सूख जाता है तब जलका अभाव होने से संकोच व विस्तार को प्राप्त नहीं होता । इसी तरह मुक्त जीव भी, पुरुष के स्थानभूत अथवा जल के स्थानभूत शरीर के अभाव में, संकोच विस्तार नहीं करता । कोई कहते हैं कि "जीव जिस स्थान में कर्मों से मुक्त हो जाता है वहां ही रहता है, " ," इसके निषेध के लिये कहते हैं कि पूर्व प्रयोग से, असंग होने से, बंध का नाश होने से तथा गति के परिणाम से, इन चार हेतुओं से तथा घूमते हुए कुम्हार के चाक के समान, मिट्टी के लेप से रहित तुम्बी के समान, एरंड के बीज के समान तथा अग्नि की शिखा के समान, इन चार दृष्टान्तां से जोब के स्वभाव से ऊर्ध्व (ऊपर को) गमन समझना चाहिये । वह ऊर्ध्वगमन ले/क के अप्रभाग तक ही होता है उससे आगे नहीं होता; क्योंकि उसके आगे धर्मास्तिकाय का अभाव है । सिद्ध नित्य हैं । यहाँ जे नित्य विशेषण है सो सदाशिववादी जो यह कहते हैं कि •‘१०० कल्प प्रमाण समय बीत जाने पर जब जगत् शून्य हो जाता है तब फिर उन मुक्त जीवों का संसार में आगमन होता है ।" इस मत का निषेध करने के लिये है, ऐसा जानना चाहिये । उत्पाद, व्यय - संयुक्तपना जो सिद्धों का विशेषरण है, वह सर्वथा अपरिणामिता के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy