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________________ वृहद्रव्यसंग्रह ४०] [गाथा १४ भणिया । १ ।" इति गाथाप्रभृतिकथितम्वरूपं धवलजयधवलमहाधवल प्रबन्धाभिधानसिद्धान्तत्रयबीजपदं सूचितम् । “सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" इति शुद्धात्मतत्त्वप्रकाशकं तृतीयगाथाचतुर्थपादेन पञ्चास्तिकायप्रवचनसारसमयसाराभिधानप्राभृतत्रयस्यापि बीजपदं सूचितमिति । अत्र गुणस्थानमार्गणादिमध्ये केवलज्ञानदर्शनद्वयं क्षायिकसम्यक्त्वमनाहारकशुद्धात्मस्वरूपं च साक्षादुपादेयं, यत्पुनश्च शुद्धात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुचरणलक्षणं कारणसमयसारस्वरूपं तत्तस्यैवोपादेयभूतस्य विवक्षितैकदेशशुद्धनयेन साधकत्वात्पारम्पर्येणोपादेयं शेषं तु हेयमिति । यच्चाध्यात्मग्रन्थस्य बीजपदभूतं शुद्धात्मस्वरूपमुक्त तत्पुनरुपादेयमेव । अनेन प्रकारेण जीवाधिकारमध्ये शुद्धाशुद्धजीवकथनमुख्यत्वेन सप्तमस्थले गाथात्रयं गतम् ।।१३॥ अथेदानी गाथापूर्वार्दैन सिद्धस्वरूपमुत्तरार्द्धन पुनरूध्वंगतिस्वभावं च कथयति : णिक्कम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धाः । लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादएहिं संजुत्ता ॥ १४ ॥ निष्काणः अष्टगुणाः किंचिदूनाः चरमदेहतः सिद्धाः। लोकायस्थिताः नित्याः उत्पादव्ययाभ्यां संयुक्ताः ॥१४॥ गाथा के चौथे पाद से शुद्ध आत्मतत्त्व के प्रकाशक पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार इन तीनों प्राभृतों का बीजपद सूचित किया है । यहां गुणस्थान और मार्गणाओं में केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों तथा क्षायिक सम्यक्त्व और अनाह रक शुद्ध आत्मा के स्वरूप हैं, अतः साक्षात् उपादेय हैं; और जो शुद्ध आत्मा के सम्यकद्वान. ज्ञान और आचरण रूप कारण समयसार है वह उसी उपादेय-भूतका विवक्षित एक देश शुद्धनय द्वारा साधक होने से परम्परा से उपादेय हैं, इसके सिवाय और सब हेय हैं । और जो अध्यात्म ग्रन्थ का बीज-पदभूत शुद्ध आत्मा का स्वरूप कहा है वह तो उपादेय ही है। इस प्रकार जीवाधिकार में शुद्ध, अशुद्ध जीव के कथन की मुख्यता से सप्तम स्थल में तीन गाथा समाप्त हुई ।। १३ ॥ अब निम्नलिखित गाथा के पूर्वार्द्ध द्वारा सिद्धों के स्वरूप का और उत्तरार्द्ध द्वारा उनके ऊर्ध्वगमन स्वभाव का कथन करते हैं : गाथार्थः-सिद्ध भगवान ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों के धारक हैं और अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार वाले हैं और (ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण) लोक के अग्रभाग में स्थित हैं नित्य हैं तथा उत्पाद. व्यय से युक्त हैं ।।१४।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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