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गाथा १३ ] प्रथगाधिकारः
[३६ जीवत्वं, भव्यत्वम् , अभव्यत्वं चेति त्रयं, तद्विनश्वरत्वेन पर्यायाश्रितत्वात्पर्यायार्थिकसंज्ञम्त्वशुद्धपारिणामिकभाव उच्यते । अशुद्धत्यं कथमिति चेत् ? यद्यप्येतदशुद्धपारिणामिकत्रयं व्यवहारेण संसारिजीवेऽस्ति तथापि 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" इति वचनाच्छुद्धनिश्चयेन नास्ति त्रयं, मुक्तजीवे पुनः सर्वथैव नास्ति, इति हेतोरशुद्धत्वं भण्यते । तत्र शुद्भाशुद्धपारिणामिकमध्ये शुद्धपारिणामिकभावो ध्यानकाले ध्येयरूपो भवति ध्यानरूपो न भवति, कस्मात् ध्यानपर्यायस्य विनश्वरत्वात् , शुद्धपारिणामिकम्तु द्रव्यरूपत्वादविनश्वरः, इति भावार्थः। औपशमिकक्षायोपशमिकक्षायिकसम्यक्त्वभेदेन त्रिधा सम्यक्त्वमार्गणा मिथ्यादृष्टिमासादनमिश्रसंज्ञविपक्षत्रयभेदेन सह षड्विधा ज्ञातव्या ।१२। संज्ञित्वासंज्ञित्व विसदृशपरमात्मस्वरूपाद्भिन्ना संझ्यसंज्ञिभेदेन द्विधा संज्ञिमार्गणा । १३ । आहारकानाहारकजीवभेदेनाहारकमार्गणापि द्विधा । १४ । इति चतुर्दशमार्गणास्वरूपं ज्ञातव्यम् । एवं "पुढविजलतेयवाऊ" इत्यादिगाथाद्वयेन, तृतीयगाथापादत्रयेण च "गुणजीवापज्जत्ती पाणा सरणा य मग्गणाओय । उवओगोवि य कमसो वीसं तु परूवणा
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आश्रित होने से ये पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अशुद्ध पारिणामिक भाव कहे जाते हैं। "इसकी अशुद्धता किस प्रकार से है ?'' इस शंका का उत्तर यह है । यद्यपि ये तीनों अशुद्ध पारिणामिक व्यवहारनय से संसारी जीव में हैं, तथापि “सव्वेसुद्धा हु सुद्धणया” इस वचन से ये तीनों भाव शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा नहीं हैं, और मुक्त जीवों में तो सर्वथा ही नहीं है। इस कारण उनकी अशुद्धता कही जाती है। उन शुद्ध तथा अशुद्ध पारिणामिक भाव में मे जो शुद्ध पारिणामिक भाव है वह ध्यान के समय ध्येय (ध्यान करने योग्य ) होता है, ध्यानरूप नहीं होता । क्योंकि, ध्यान पर्याय विनश्वर है; और शुद्ध पारिणामिक द्रव्यरूप होने के कारण अविनाशी है, यह सारांश है । सम्यक्त्व के भेद से सम्यक्त्वमार्गणा तीन प्रकार की है । औपशमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक । और मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीन विपक्ष भेदों के साथ छह प्रकार की भी सम्यक्त्वमार्गणा जाननी चाहिए ।१२। संज्ञित्व तथा असंज्ञित्व से विलक्षण परमात्मस्वरूप से भिन्न संज्ञिमार्गणा 'संज्ञी तथा असंज्ञी भेद से' दो प्रकार की है ।१३। अहारक अनाहारक जीवों के भेद से आहारमार्गणा भी दो प्रकार की है ।१४। इस प्रकार चौदह मार्गणाओं का स्वरूप जानना चाहिये । इस रीति से "पुढविजलतेयवाऊ” इत्यादि दो गाथाओं और तीसरी गाथा "णिकम्मा अट्ठगुणा" के तीन पदों से “गुणस्थान, जीव समास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा चौदह मार्गणा और उपयोगों से इस प्रकार क्रमशः बीस प्ररूपणा कही हैं। १।" इत्यादि गाथा में कहा हुआ स्वरूप धवल, जयधवल और महाधवल प्रबन्ध नामक जो तीन सिद्धान्त ग्रन्थ है उनके बीज-पद की सूचना ग्रन्थकारने की है । 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया” इस तृतीय
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