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________________ गाथा १४ ] प्रथमाधिकारः [ ४१ ___ व्याख्या - 'मिद्धा' सिद्धा भवन्तीति क्रियाध्याहारः । किं विशिष्टाः ? "णिक्कम्मा अट्टगुणा किंचूणो चरमदेहदो" निष्कर्माणोऽष्टगुणाः किञ्चिदूनाश्चरमदेहतः सकाशादिति सूत्रपूर्वार्द्धन सिद्धस्वरूपमुक्तम् । ऊर्ध्वगमनं कथ्यते "लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहि संजुत्ता" ते च सिद्धा लोकाग्रस्थिता नित्या उत्पादव्ययाभ्यां संयुक्ताः । अतो विस्तर:-कर्मारिविध्वंसकस्वशुद्धात्मसंवित्तिवलेन ज्ञानावरणादिमूलोत्तरगतसमस्तकर्मप्रकृतिविनाशकत्वांदष्टकर्मरहिताः 'सम्मत्तणाणदंसणवीरियसुहुमं तहेव अवगहणं । अगुरुलहुअव्वबाहं अठगुणा होंति सिद्धाणं । १ ।" इति गाथाकथितक्रमेण तेषामष्टकर्मरहितानामष्टगुणाः कथ्यन्ते । तथाहि- केवलज्ञानादिगुणास्पदनिजशुद्धात्मैघोपादेयं इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं यत्पूर्व तपश्चरणावस्थायां भावितं तस्य फलभूतं समस्तजीवादितत्त्वविषये विपरीताभिनिवेशरहितपरिणतिरूपं परमक्षायिकसम्यक्त्वं भण्यते । पूर्व छअस्थावस्थायां भावितस्य निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानस्य फलभूतं युगपल्लोकालोकसमस्तवस्तुगतविशेषपरिच्छेदकं केवलज्ञानम् । निर्विकल्पस्वशुद्धात्मसत्तावलोकनरूपं यत्पूर्व दर्शनं भावितं तस्यैव फलभूतं युगपल्लोकालोकसमस्तवस्तुगतसामान्यग्राहक वृत्त्यर्थः- सिद्धा” सिद्ध होते हैं, इस रीति से यहां "भवन्ति” इस क्रिया का अध्याहार करना चाहिये । सिद्ध किन विशेषणों से विशिष्ट होते हैं ? "णिकम्मा अट्ठगुणा किंचूण। चरमदेहदो” कर्मों से रहित, आठ गुणों से सहित और अन्तिम शरीर से कुछ छोटे ऐसे सिद्ध हैं । इस प्रकार सूत्र के पूर्वाद्धं द्वारा सिद्धों का स्वरूप कहा। अब उनका उर्ध्वगमन स्वभाव कहते हैं। “लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता" वे सिद्ध लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद, व्यय से संयुक्त हैं । अब विस्तार से इसकी व्याख्या करते हैं:-कर्म शत्रुओं के विध्वंसक अपने शुद्ध आत्मसंवेदन के बल के द्वारा ज्ञानावरण आदि समस्त मूल व उत्तर कर्म प्रकृतियों के विनाश करने से आठों कर्मों से रहित सिद्ध होते हैं। तथा “सम्यक्त्व, ज्ञान दर्शन वीर्य, सूक्ष्म, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्यावाध ये आठ गुण सिद्धों के होते हैं ।। १।" इस गाथा में कहे क्रम से, आठ कर्म रहित सिद्धों के आठ गुण कहे जाते हैं। केवल ज्ञान आदि गुणों का आश्रयभूत निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है; इस प्रकार की रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व जो कि पहले तपश्चरण की अवस्था में भावित किया था उसके फलस्वरूप समस्त जीव आदि तत्त्वों के विषय में विपरीत अभिनिवेश (विरुद्ध अभिप्राय) से रहित परिणामरूप परम क्षायिक “सम्यक्त्व" गुण सिद्धों के कहा गया है । पहले छद्मस्थ (अल्पज्ञ) अवस्था में भावना किये हुए निर्विकार स्वानुभवरूप ज्ञान के फलस्वरूप एक ही समय में लोक तथा अलोक के सम्पूर्ण पदार्थों में प्राप्त हुए विशेषों को जानने वाला "केवल ज्ञान" गुण है । समस्त विकल्पों से रहित अपनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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