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________________ ३४ ] वृहद्रव्यसंग्रहः . [गाथा १३ वृत्तिलक्षणेषु "दसणवयसामाइयपोसहसचित्तराइभत्ते य।वम्हारंभपरिग्गह अणुमण उदिट्ठ देसविरदो य । १।" इति गाधाकथितैकादशनिलयेषु वर्तते स पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावको भवति। ५ । स एव सदृष्टिधूलिरेखादिसदृशक्रोधादितृतीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेन रागाधुपाधिरहितस्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतानुभवलक्षणेषु बहिर्विषयेषु पुनः सामस्त्येन हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिगृहनिवृत्तिलक्षणेषु च पञ्चमहाव्रतेषु वर्तते यदा तदा दुःस्वप्नादिव्यक्ताव्यक्तप्रमादसहितोऽपि षष्ठगुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयतो भवति । ६ । स एव जलरेखादिसदृशसंज्वलनकषायमन्दोदये सति निष्प्रमादशुद्धात्मसंवित्तिमलजनकव्यक्ताव्यक्तप्रमादरहितः सन्सप्तमगुणस्थानवर्ती अप्रमतसंयतो भवति । ७। स एवातीवसंज्वलनकषायमन्दोदये सत्यपूर्वपरमालादैकसुखानुभूतिलक्षणापूर्वकरणोपशमकक्षपकसंज्ञोऽष्टमगुणस्थानवी भवति । ८ । दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षादिरूपसमस्तमङ्कल्पविकल्परहितनिजनिश्चलपरमात्मवैकागध्यानपरिणामेन कृत्वा येषां जीवानामेकसमये ये परस्परं पृथक्क नायान्ति ते वर्णसंस्थानादिभेदेऽप्यनिवृत्तिकरणौपश अभाव होने पर अन्तरंग में निश्चय नय से एक देश राग आदि से रहित स्वाभाविक सुख के अनुभव लक्षण तथा बाह्य विषयों में हिंसा; झूठ; चोरी; अब्रा और परिग्रह इनके एक देश त्याग रूप पाँच अणुव्रतों में और 'दर्शन; व्रत; सामयिक प्रोपध; सचित्तविरत; रात्रिभुक्ति त्याग; ब्रह्मचर्य; आरम्भ त्याग; परिग्रह त्याग; अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग ।।" इस गाथा में कहे हुए श्रावक के एकादश स्थानों में से किसी एक में बर्तने वाला है वह "पंचम गुणस्थानवी श्रावक" होता है । ५। जब वही सम्यग्दृष्टि; धूलि की रेखा के समान क्रोध आदि प्रत्याख्यानावरण तीसरी कषाय के उदय का अभाव होने पर निश्चय नय से अंतरंग में राग आदि उपाधि-रहित; निज-शुद्ध अनुभव से उत्पन्न सुखामृत के अनुभव लक्षण रूप और बाहरी विषयों में सम्पूर्ण रूप मे हिंसा; असत्य; चोरी; अब्रह्म और परिग्रह के त्याग रूप ऐसे पाँच महाव्रतों का पालन करता है; तब वह बुरे स्वप्न आदि प्रकट तथा अप्रकट प्रमाद सहित होता हुआ छठे गुणस्थानवर्ती 'प्रमत्तसंयत" होता है । ६। वही; जलरेखा के तुल्य संज्वलन कषाय का मन्द उदय होने पर प्रमाद रहित जो शुद्ध आत्मा का अनुभव है उसमें मल उत्पन्न करने वाले व्यक्त अव्यक्त प्रमादों से रहित होकर; सप्तम गुणस्थानवर्ती "अप्रमत्तसंयत" होता है । ७ । वही; अतीव संज्वलन कषाय का मन्द उदय होने पर; अपूर्व परमआल्हाद एक सुख के अनुभव रूप 'अपूर्वकरण में उपशमक या क्षपक नामक अष्टम गुणस्णानवी" होता है । ८ । देखे, सुने और अनुभव किये हुए भोगों की वांछदिरूप संपूर्ण संकल्प तथा विकल्प रहित अपने निश्चल परमात्मस्वरूप के एकाग्र ध्यान के परिणाम से जिन जीवों के एक समय में परस्पर अन्तर नहीं होता वे वर्ण तथा संस्थान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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