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________________ गाथा १३ ] प्रथमाधिकारः [ ३३ मिथ्यात्वं नाद्यापि गच्छतीत्यन्तरालवर्त्ती सासादनः । निजशुद्धात्मादितत्त्वं वीतरासर्वज्ञप्रणीतं परप्रणीतं च मन्यते यः स दर्शनमोहनीय भेदमिश्रकर्मोदयेन दधिगुमिश्रभाववत् मिश्रगुणस्थानवत्र्त्ती भवति । अथ मतं - येन केनाप्येकेन मम देवेन प्रयोजनं तथा सर्वे देवा वन्दनीया न च निन्दनीया इत्यादिवैनयिकमिथ्यादृष्टिः संशय मिथ्यादृष्टिर्वा तथा मन्यते तेन सह सम्यग्मिथ्यादृष्टेः को विशेष इति ? अत्र परिहार : - "स सर्वदेवेषु सर्वसमयेषु च भक्तिपरिणामेन येन केनाप्येकेन मम पुण्यं भविष्यतीति मत्वा संशयरूपेण भक्तिं कुरुते निश्चयो नास्ति । मिश्रस्य पुनरुभयत्र निश्चयोऽस्तीति विशेषः । " स्वाभाविकानन्तज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इन्द्रियसुखादिपरद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीत निश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्त तलवरगृहीततस्करवदात्मनिन्दासहितः सन्निन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् । यः पूर्वोक्तप्रकारेण सम्यग्दृष्टिः सन् भूमिरेखादिसमानक्रोधादिद्वितीयकपायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयन येनैकदेशरागादिरहितस्वाभाविक सुखानुभूतिलक्षणेषु वहिर्विषयेषु पुनरेकदेशहिंसानृतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहनि इन दोनों के बीच के परिणाम वाला जीव "सासादन" होता है । २ । जो अपने शुद्ध आत्मा आदि तत्वों को वीतराग सर्वज्ञ के कहे अनुसार मानता है और अन्य मत के अनुसार भी मानता है वह मिश्रदर्शनमोहनीय कर्म के उदय से दही और गुड़ मिले हुए पदार्थ की भांति "मिश्रगुरण स्थान वाला" है । ३ । शंका - " चाहे जिससे हो मुझे तो एक देव से मतलब है अथवा सब ही देव वन्दनीय हैं, निन्दा किसी भी देव की न करनी चाहिये” इस प्रकार वैनयिक और संशय मिध्यादृष्टि मानता है; तब उनमें तथा मिश्रगुणस्थानवर्त्ती सम्यगमिध्यादृष्टि में क्या अन्तर है ? इसका उत्तर यह है कि - वैनयिक मिथ्या दृष्टि तथा संशय मिध्यादृष्टि तो सभी देवों में तथा सब शास्त्रों में से किसी एक की भक्ति के परिणाम से मुझे पुण्य होगा ऐसा मानकर संशय रूप से भक्ति करता है; उसको किसी एक देव में निश्चय नहीं है । और मिश्रगुरणस्थानवर्त्ती जीव के दोनों में निश्चय है । बस, यही अन्तर है ? जो “स्वाभाविक अनन्त ज्ञान आदि अनन्त गुण का आधारभूत निज परमात्मद्रव्य उपादेय है तथा इन्द्रिय सुख आदि परद्रव्य त्याज्य हैं" इस तरह सर्वज्ञ देवप्रणीत निश्चय व व्यवहार नय को साध्य-साधक भाव से मानता है, परन्तु भूमि की रेखा के समान क्रोध आदि अप्रत्याख्यानकषाय के उदय से; मारने के लिये कोतवाल से पकड़े हुए चोर की भांति आत्मनिन्दादि सहित होकर इन्द्रिय-सुख का अनुभव करता है; यह “अविरत सम्यग्दृष्टि” चौथे गुण स्थानवर्त्ती का लक्षण है । ४ । पूर्वोक्त प्रकार से सम्यग्दृष्टि कर भूमि रेखादि के समान क्रोधादि अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय कषायों के उदय का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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