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________________ ३२ ] बृहद्रव्यसंग्रहः [गाथा १३ तचतुर्दशजीवसमासैभवन्ति मार्गणागुणस्थानैश्च तथा भवन्ति संभवन्तीति विज्ञेया ज्ञातव्याः । कतिसंख्योपेतैः ? "चउदसहि" प्रत्येकं चतुर्दशभिः। कस्मात् ? "असुद्धणया" अशुद्धनयात सकाशात् । इत्थंभूताः के भवन्ति ? "संसारी" सांसारिजीवाः । “सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" त एव सर्वे संसारिणः शुद्धाः सहजशुद्धज्ञायकैकस्वभावाः । कस्मात् ? शुद्धनयात् शुद्धनिश्चयनयादिति । अथागमप्रसिद्धगाथाद्वयेन गुणस्थाननामानि कथयति । "मिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । विरया पमत्त इयरो अपुन्य अणिय ठिठ्ठ सुहमो य । १। उवसंत . खीणमोहो सजोगिकेवलिजिणो अजोगी या। चउदस गुणठाणाणि य कमेण सिद्धा य णायव्या । २।" इदानीं तेषामेव गुणस्थानानां प्रत्येकं संक्षेपलक्षणं कथ्यते । तथाहि - सहजशुद्धकेवलज्ञानदर्शनरूपाखण्डेकप्रत्यक्षप्रतिभासमयनिजपरमात्मप्रभृतिषड्द्रव्यपञ्चास्तिकायसप्ततत्वनवपदार्थेषु मूढत्रयादिपञ्चविंशतिमलरहितं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन यस्य श्रद्धानं नास्ति स मिथ्यादृष्टिभवति । पाषाणरेखासदृशानन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभान्यतरोदयेन प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वात्पतितो कहे हुए १४ जीव समासों से जीवों के १४ भेद होते हैं उसी तरह मार्गणा और गुणस्थानों से भी होते हैं, ऐसः जानना चाहिये । मार्गणा और गुणस्थानों से कितनी संख्या वाले होते हैं ? "चउदसहि" प्रत्येक से १४-१४ संख्या वाले हैं। किस अपेक्षा से ? "असुद्धणया" अशुद्ध नयकी अपेक्षा से । मार्गणा और गुणस्थानों से अशुद्ध नयकी अपेक्षा चौदह-चौदह प्रकार के कौन होते हैं ? "संसारी” संसारी जीव होते हैं। “सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया” वेही सव संसारी जीव शुद्ध यानी-स्वाभाविक शुद्ध ज्ञायक रूप एक-स्वभाव-धारक हैं । किस अपेक्षा से ? शुद्ध नय से अर्थात् शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से। __ अब शास्त्रप्रसिद्ध दो गाथाओं द्वारा गुणस्थानों के नाम कहते हैं । “मिथ्यात्व १,सासादन २, मिश्र ३, अविरतसम्क्त्व ४, देशविरत ५, प्रमत्तविरत ६, अप्रमत्तविरत ७, अपूर्वकरण ८, अनिवृत्तिकरण ६, सूक्ष्मसांपराय १०, उपशान्तमोह ११, क्षीणमोह १२, सयोगिकेवली १३ और अयोगिकेवली १४ इस तरह क्रम से चौदह गुणस्थान जानने चाहिये ।२।" अब इन गुणस्थानों में से प्रत्येक का संक्षेप से लक्षण कहते हैं। वह इस प्रकार स्वाभाविक शुद्ध केवल ज्ञान केवल दर्शन रूप अखंड एक प्रत्यक्ष प्रतिभासमय निजपरमात्मा आदि षट द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्व और नव पदार्थों में तीन मूढता आदि पञ्चीस दोष रहित वीतराग सर्वज्ञद्वारा कहे हुए नयविभाग से जिस जीव के श्रद्धान नहीं है वह जीव "मिथ्याद्दष्टि" होता है ।१। पाषाणरेखा (पत्थर में उकेरी हुई लकीर ) के समान जो अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ में से किसी एक के उदय से प्रथम-औपशमिक सम्यक्त्व से, गिरकर जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त न हो, तब तक सम्यक्त्व और मिथ्यात्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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