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गाथा १३ ] वृहद्र्व्यसंग्रहः
[ ३५ मिकक्षपकसंज्ञा द्वितीयकषायाद्यकविंशतिभेदभिन्नचारित्रमोहप्रकृतीनामुपशमक्षपणसमर्था नवमगुण्थासनवर्तिनो भवन्ति । है । सूक्ष्मपरमात्मतत्वभावनाबलेन सूक्ष्मकृष्टिगतलोभकषायस्योपशमका: क्षपकाश्च दशमगुणस्थानवर्तिनो भवन्ति ।१०। परमोपशममूर्तिनिजात्मस्वभावसंवित्तिबलेन सकलोपशान्तमोहा एकादशगुणस्थानवर्तिनो भवन्ति । ११ । उपशमश्रेणिविलक्षणेन क्षपकश्रेणिमार्गेण निष्कषायशुद्वात्मभावनावलेन क्षीणकषाया द्वादशगुणास्थानवर्तिनो भवन्ति । १२ । मोहक्षपणानन्तरम-तमहूर्त झालं स्वशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणैकत्ववितर्काविचारद्वितीयशुक्लध्याने स्थित्वा तदन्त्यसमये ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायत्रयं युगपदेकसमयेन निर्मन्य मेघपञ्जरविनिर्गतदिनकर इव सकलविमलकेवलज्ञानकिरणैर्लोकालोकप्रकाशकास्त्रयोदशगुणस्थानवतिनो जिनभास्करा भवन्ति। १३ । मनोवचनकायवर्गणालम्बनकर्मादा निमि तात्म प्रदेशपरिस्पन्दलक्षणयोगरहिताश्चतुर्दशगुणास्थानव र्ति - नोऽयोगिनिया भवन्ति । १४ । ताश्च निश्चयरत्नत्रयात्मककारणभूतसमयसारसंशेन परमयथाख्यातचारित्रेण चतुर्दशगुणस्थानातीताः ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मरहिताः सम्यक्त्वाद्यष्टगुणान्तर्भूतनिर्नामनिर्गोत्राद्यनन्तगुणाः सिद्धाः भवन्ति ।
के भेद होने पर भी अनिवृत्तिकरण उपशमक क्षपक संज्ञा के धारक; अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय कषाय आदि इक्कीस प्रकार की चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उपशमन और क्षपण में समर्थ “नवम गुणस्थानवर्ती" जीव हैं । । । सूक्ष्म परमात्मतत्त्व भावना के बल से जो सूक्ष्म कृष्टि रूप लोभ कष.य के उपशमक और क्षपक हैं वे दशम "गुणस्थानवर्ती" हैं। १० । परम उपशममूर्ति निज आत्मा के स्वभाव अनुभव के बल से सम्पूर्ण मोह को उपशम करने वाले ग्यारहवें "गुणस्थानवर्ती" होते हैं । ११ । उपशमश्रेणी से भिन्न क्षपक श्रेणी के मार्ग से कषाय रहित शुद्ध आत्मा की भावना के बल से जिनके समस्त कषाय नष्ट हो गये हैं वे बारहवें "गुणस्थानवर्ती" होते हैं । १२ । मोह के नाश होने के पश्चात् अन्तमुहूर्त काल में ही निज शुद्ध आत्मानुभव रूप एकत्व वितर्क अविचार नामक द्वितीय शुक्ल ध्यान में स्थिर होकर उसके अन्तिम समय में ज्ञानावरण; दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीनों को एक साथ एक काल में सर्वथा निमूल करके मेघपटल से निकले हुए सूर्य के समान सम्पूर्ण निर्मल केवलं ज्ञान किरणों से लोक अलोक के प्रकाशक तेरहवें "गुणस्थानवर्ती" जिन भास्कर (सूर्य) होते हैं । १३ । और मन, वचन, कायवर्गणा के अवलम्बन से कर्मों के ग्रहण करने में कारण जो आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्द रूप योग है उससे रहित चौदहवें "गुणस्थानवर्ती" "अयोगी जिन" होते हैं । १४ । तदन्तर निश्चय रत्नत्रयात्मक कारणभूत समयसार नामक जो परम यथाख्यात चारित्र है उससे पूर्वोक्त चौदह गुणस्थानों से रहित, ज्ञानावरण आदि अष्ट कर्मों से रहित तथा सम्यक्त्व आदि अष्ट गुणों में गर्भित निर्नाम (नाम रहित) निर्गोत्र (गोत्र रहित) आदि, अनन्त गुण सहित सिद्ध होते हैं।
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