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गाथा १० ]
प्रथमाधिकारः
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विक्रियामारणान्तिकतैजसाहारक केवलि संज्ञसप्तसमुद्घातवर्जनात् । तथा चोक्त ं सप्तसमुद्धातलक्षणम् – "वेयणक सायवेउच्चियमारणंति समुग्धादो । तेजाहारो छट्टो सत्तमओ कंवलीणं तु ॥ १ ॥ " तद्यथा - "मूल सरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीव पिंडस्स । णिग्गमणं देहादो हवदि समुग्धादयं गाम ॥ १ ॥” तीव्रवेदनानुभवान्मूलशरीरमत्यक्त्वा आत्मप्रदेशानां बहिर्निर्गमन मिति वेदनां समुद्घातः । १ । तीव्रकषायोदयान्मूलशरीरमत्यक्त्वा परस्य घातार्थमात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति कषायसमुद्घातः । २ । मूलशरीरमपरित्यज्य किमपि विकतु' मात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति विक्रियासमुद्घातः । ३ । मरणान्तसमये मूलशरीरमपरित्यज्य यत्र कुत्रचिह्नद्धमायुस्तत्प्रदेशं स्फुटितुमात्म प्रदेशानां बहिर्गमन मिति मारणान्तिकसमुद्घातः । ४ । स्वस्य मनोनिष्टजनकं किञ्चित्कारणान्तरमवलोक्य समुत्पन्नक्रोधस्य संयमनिधानस्य महामुनेर्मूलशरीरमपरित्यज्य सिन्दूरपुञ्जप्रभो दीर्घत्वेन द्वादशयोजनप्रमाणः सूच्यङ्ग ुलसंख्येयभागमूलविस्तारो नवयोजनाग्रविस्तारः काहलाकृतिपुरुषो वामस्कन्धान्निर्गत्य वामप्रदक्षिणेन हृदये निहितं विरुद्धं वस्तु भस्मसात्कृत्य तेनैव
कहा है – “१. वेदना; २. कषाय; ३. विक्रिया; ४. मारणान्तिक; ५. तैजस; ६. आहार और ७. केवली ये सात समुद्घात हैं ।” इनका स्वरूप यों है- "अपने मूल शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के कुछ प्रदेश देह से बाहर निकल कर उत्तरदेह के प्रति ज.ते हैं उसको समुद्घात कहते हैं ।” तीव्र पीड़ा के अनुभव से मूल शरीर न छोड़ते हुए जो आत्मा के प्रदेश का शरीर से बाहर निकलना, सो “वेदना" समुद्वात है । १ । तीव्र क्रोधादिक कपय के उदय से अपने धारण किये हुए शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के प्रदेश दूसरे को मारने के लिये शरीर के बाहर जाते हैं उसको “कपाय" समुद्घात कहते हैं । २ । किसी प्रकार की विक्रिया (छोटा या बड़ा शरीर अथवा अन्य शरीर) उत्पन्न करने के लिये मूल शरीर को न त्याग कर जो आत्मा के प्रदेशों का बाहर जाना है उसको "विक्रिया" सनुघात कहते हैं । ३ । मरण के समय में मूल शरीर को न त्याग कर जहाँ इस आत्मा
आगामी बाँधी है उसके छूने के लिये जो आत्म-प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना सो " मारणान्तिक" समुद्घात है | ४ | अपने मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले किसी कारण को देखकर क्रोधित संयम के निधान महामुनि के बाएँ कन्धे से सिन्दूर के ढेर जैसी कान्ति वाजा; बारह योजन लम्बा, सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण मूल-विस्तार और नौ योजन के अ-विस्तार वाला; काहल (विलाव) के आकार का धारक पुरुष निकल करके बाय प्रदक्षिणा देकर मुनि जिस पर क्रोधी हो उस विरुद्ध पदार्थ को भस्म करके और उसी
के साथ आप भी भस्म हो जावे। जैसे द्वीपायन मुनि के शरीर से पुतला निकलकर द्वारिका नगरी को भस्म करने के बाद उसो ने द्वीपायन मुनि को भस्म किया और वह
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