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________________ २६] बृहद्रव्यसंग्रहः [गाथा १० संयनिना सह स च भस्म जति द्वीपायनवत् , असावशुभस्तेजः समुद्घातः । लोकं व्याधिदुर्भिक्षादिपीडितमक्लोक्य समुत्पन्नकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेमूलशरीरमपरित्यज्य शुभ्राकृतिः प्रागुक्तदेहप्रमाणः पुरुषो दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुर्भिक्षादिकं म्फोटयित्वा पुनरपि स्वस्थाने प्रविशति, असौ शुभरूपस्तेजः समुद्घातः । ५ । समुत्पन्नपदपदार्थभ्रान्तेः परमर्द्धिसंपन्नस्य महर्षलशरीरमपरित्यज्य शुद्धस्फटिकाकृतिरेकहस्तप्रमाणः पुरुषो मस्तकमध्यान्निर्गत्य यत्र कुत्रचिदन्तमहूर्तमध्ये केवलज्ञानिनं पश्यति तदर्शनाच्च स्वाश्रयस्य मुनेः पदपदार्थनिश्चयं समुत्पाद्य पुनः स्वस्थाने प्रविशति, असावाहारसमुद्घातः । ६ । सप्तमः केवलिनां दण्डकपाटप्रतरपूरणः सोऽयं केवलिसमुद्घातः । ७ । नयविभागः कथ्यते-- “ववहारा" अनुपचरितासद्भुतव्यवहारनयात् । "णिच्छियणदो असंखदेसो वा" निश्चयन यतो लोकाकाशमितासंख्येयप्रदेशप्रमाणः । 'वा' शब्देन तु स्वसंवित्तिसमुत्पन्न केवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे ज्ञानापेक्षया पुतला श्राप भी भस्म हो गया । सो "अशुभ तेजस" समुद्घात है। तथा जगत् को रोग, दुर्भिक्ष आदि से दुःखित देखकर जिसको दया उत्पन्न हुई ऐसे परम संयमनिधान महाऋषि के मूल शरीर को न त्याग कर पूर्वोक्त देह के प्रमाण; सौम्य आकृति का धारक पुरुष दाएँ कन्धे से निकल कर दक्षिण प्रदक्षिणा करके रोग, दुर्भिक्ष आदि को दूर कर फिर अपने स्थान में आकर प्रवेश कर जावे वह "शुभ तैजस समुद्घात" है । ५। पद और पदार्थ में जिसको कुछ संशय उत्पन्न हुआ हो, उस परम ऋद्धि के धारक महर्षि के मस्तक में से मूल शरीर को न छोड़कर, निर्मल स्फटिक के रंग का एक हाथ का पुतला निकल कर अन्तर्मुहूर्त में जहाँ कहीं भी केवली को देखता है तब उन केवली के दर्शन से अपने आश्रय मुनि को पद और पदार्थ का निश्चय उत्पन्न कराकर फिर अपने स्थान में प्रवेश कर जावे, सो "आहारक समुद्घात" है । ६। केवलियों के जो दंड कपाट प्रतर लोक पूर्ण होता है. सो सातवां केवलि समुद्घात है। ७ । अब नयों का विभाग कहते हैं। "ववहारा" अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से जीव अपने शरीर के बराबर है तथा “णिच्छयणयदो असंखदेसो वा" निश्चय नय से लोकाकाश प्रमाण जो असंख्य प्रदेश हैं उन प्रमाण असंख्यात प्रदेशों का धारक यह आत्मा है। "असंखदेसो वा” यहाँ जो 'वा' शब्द दिया है उस शब्द से ग्रन्थकर्ता ने यह सूचित किया है कि स्वसंवेदन (आत्मअनुभूति) से उत्पन्न हुए केवल ज्ञान की उत्पत्ति की अवस्था में ज्ञान की अपेक्षा से व्यवहार नय द्वारा आत्मा लोक; अलोक व्यापक है । किन्तु नैयायिक, मीमांसक तथा सांख्य मत अनुयायी जिस तरह आत्मा को प्रदेशों की अपेक्षा से व्यापक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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