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________________ गाथा ] प्रथमाधिकारः [२३ "णिच्छयणदो चेदणभावं आदम्स" निश्चयनयतश्चेतनभावं भुंक्ते । “खु" स्फुटम् । कस्य सम्बन्धिनमात्मनः स्वस्येति । तद्यथा-आत्माहि निजशुद्धात्मसंवित्ति समुद्भूतपारमार्थिकसुखसुधारसभोजनमलभमान उपचरितासद्भूतव्यवहारेणेष्टानिष्टपञ्चेन्द्रियविषयजनितसुखदुःखं भुंक्त तथैवानुपचरितास भूतव्यवहारेणाभ्यन्तरे सुखदुःख जनकं द्रव्यकर्मरूपं सातासातोदयं भुंक्ते । स एवाशुद्धनिश्चयनयेन हर्षविषादरूपं सुखदुःखं च भुंक्ते । शुद्धनिश्चयनयेन तु परमात्मस्वभावसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानोत्पन्नसदानन्दैकलक्षणं सुखामृतं भुंक्त इति । अत्र यस्यैव स्वाभाविकसुखामृतस्य भोजनाभावादिन्द्रियसुखं भुजोनः सन् संसारे परिभ्रमति तदेवातीन्द्रियसुखं सर्वप्रकारेणोपादेयमित्यभिप्रायः । एवं कर्ता कर्मफलं न भुंक्त इति बौद्धमतनिषेधार्थ भोक्तृत्वव्याख्यानरूपेण सूत्रं गतम् ॥ ६ ॥ अथ निश्चयेन लोकप्रमितासंख्येयप्रदेशमात्रोऽपि व्यवहारेण देहमानो जीव इत्यावेदयति : से सुख-दुःख रूप पुद्गल कर्म फलों को भोगता है। वह कर्म फलों का भोक्ता कौन है ? "श्रादा" आत्मा । “णिच्छयणयदो चेदणभाव खु आदस्स" और निश्चय नय से तो स्पष्ट रीति से चेतन भाव का ही भोक्ता आत्मा है । वह चेतन भाव किस सम्बन्धी है ? आत्मा का अपना ही है । वह ऐसे-अपने शुद्ध आत्मअनुभव से उत्पन्न पारमार्थिक सुखरूप अमृत रस का भोजन न प्राप्त करता हुआ आत्मा, उपचरित असद्भत व्यवहार नय से इष्ट, अनिष्ट पांचों इन्द्रियों के विषयों से उत्पन्न सुख-दुःख को भोगता है; उसी तरह अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से अन्तरंग में सुख-दुःख को उत्पन्न करने वाले द्रव्य कर्म रूप साता-असाता के उदय को भोगता है । तथा अशुद्ध निश्चय नय से वह ही आत्मा हर्ष, विषाद रूप सुखदुःख को भोगता है और शुद्ध निश्चय नय से तो परमात्मस्वभाव के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण से उत्पन्न अविनाशी आनन्द रूप वाले सुखामृत को भोगता है। यहाँ पर जिस स्वाभाविक सुखामृत के भोजन के अभाव से आत्मा इन्द्रियों के सुखों को भोगता हुश्रा संसार में भ्रमण करता है, वही अतीन्द्रिय सुख सब प्रकार से ग्रहण करने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है । इस प्रकार "कर्ता कर्म के फल को नहीं भोगता है" इस बौद्ध मत का खंडन करने के लिये “जीव कर्मफल का भोक्ता है" यह ब्याख्यान रूप सूत्र समाप्त हुआ। "आत्मा यद्यपि निश्चय नय से लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशों का धारक है फिर भी व्यवहार नय से अपनी देह के बराबर है" यह बतलाते हैं: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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