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________________ २२] वृहद् द्रव्य संग्रहः [ गाथा ६ 1 कर्ता, मुक्तावस्थायां तु शुद्धनयेनेति । किन्तु शुद्धाशुद्धभावानां परिणममानानाम् एव कर्तृत्वं ज्ञातव्यम्, न च हस्तादिव्यापाररूपाणामिति । यतो हि नित्यनिरञ्जननिष्क्रियनिजात्मस्वरूप भावनारहितस्य कर्मादिकर्तृत्वं व्याख्यातम्, ततस्तत्रैव निजशुद्धात्मनि भावना कर्तव्या । एवं सांख्यमतं प्रत्येकान्ताकतु त्वनिराकरणाख्यत्वेन गाथा गता ॥ ८ ॥ अथ यद्यपि शुद्ध नयेन निर्विकार परमाह्लादै कलक्षण सुखामृतस्य भोक्ता तथाप्यशुद्धनयेन सांसारिक सुखदुःखस्यापि भोक्तात्मा भवतीत्याख्याति : ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्म फलं पर्भुजेदि । आदा विच्छयदो चेदभावं खुदस्स || ६॥ व्यवहारात् सुखदुःखं पुद्गलकर्मफलं प्रभुङ्क्ते । आत्मा निश्चयनयतः चेतनभावं खलु श्रात्मनः ॥ ६॥ व्याख्या - "ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पर्भुजेदि" व्यवहारात् सुखदुःखरूपं पुद्गलकर्मफलं प्रभुंक्ते । स कः कर्त्ता ? " श्रदा" आत्मा । मन, वचन, काय इन तीनों योगों के व्यापार से रहित शुद्ध, बुद्ध, एक स्वभाव से परिणमन करता है तब अनंत ज्ञान, सुख आदि शुद्ध भावों का छद्मस्थ अवस्था में भावना रूप से विवक्षित एक देश शुद्ध निश्चय नय से कर्त्ता होता है और मुक्त अवस्था में शुद्ध निश्चय नय से अनंतज्ञानादि शुद्ध भावों का कर्ता है। किन्तु परिणमन करते हुए शुद्ध, अशुद्ध भावों का कर्तृत्व जीव में जानना चाहिये और हस्त आदि के व्यापार रूप परिणमनों का कर्तापन न समझना चाहिए। क्योंकि नित्य; निरंजन; निष्क्रिय ऐसे अपने आत्मस्वरूप की भावना से रहित जीव के कर्म आदि का कर्तृत्व कहा गया है; इसलिये उस निज शुद्ध आत्मा ही भावना करनी चाहिये । इस तरह सांख्यमत के प्रति " एकान्त से जीव कर्त्ता नहीं है" इस मत के निराकरण की मुख्यता से गाथा समाप्त हुई ।। ८ ।। यद्यपि आत्मा शुद्ध नय से विकाररहित परम आनन्द रूप लक्षण वाले ऐसे सुख रूपी अमृत को भोगने वाला है तो भी अशुद्ध नय से सांसारिक सुख-दुःख का भी भोगने वाला है, ऐसा कहते हैं: Jain Education International गाथार्थ :- व्यवहार नय से आत्मा सुख-दुःख रूप पुद्गल कर्मों के फल को भोगता है और निश्चय नय से अपने चेतन भाव को भोगता है ॥ ६ ॥ वृत्त्यर्थः -- "ववहारा सहदुक्खं पुग्गलकम्मफलं पभुजेदि" व्यवहार नय की अपेक्षा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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