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________________ [२१ गाथा ] प्रथमाधिकारः व्याख्या-अत्र सूत्रे भिन्नप्रक्रमरूपव्यवहितसम्बन्धेन मध्यपदं गृहीत्वा व्याख्यानं क्रियते । “श्रादा" प्रात्मा "पुग्गलकम्मादीणं कत्ता वबहारदो दु" पुद्गलकर्मादीनां कर्ता व्यवहारतस्तु पुनः, तथाहि-मनोवचनकायव्यापारक्रियारहितनिजशुद्धात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन्ननुपचरितासद्भूतव्यवहारेण ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मणामादिशब्देनौदारिकवैक्रियिकाहारकशरीरत्रयाहारादिषट्पर्याप्तियोग्यपुद्गलपिण्डरूपनोकर्मणां तथैवोपचरितासद्भुतव्यवहारेण बहिर्विषयघटपटादीनां च कर्ता भवति । "णिच्छियदो चेदणकम्माणादा" निश्चयनयतश्चेतनकर्मणां तद्यथा रागादिविकल्पोपाधिरहितनिष्क्रियपरमचैतन्यभावनारहितेन यदुपार्जितं रागाद्युत्पादकं कर्म तदुदये सति निष्क्रियनिर्मलस्वसंवित्तिमलभमानो भावकर्मशब्दवाच्यरागादिविकल्परूपचेतनकर्मणामशुद्धनिश्चयेन कर्ता भवति । अशुद्धनिश्चयस्यार्थः कथ्यते-कर्मोपाधिसमुत्पन्नत्वादशुद्धः, तत्काले ततायः पिण्डवत्तन्मयत्वाच्च निश्चयः, इत्युभयमेलापकनाशुद्धनिश्चयो भएयते । “सुद्धणया सुद्धभावाणं" शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्धकस्वभावेन यदा परिणमति तदानन्तज्ञानसुखादिशुद्धभावानां छमस्थावस्थायां भावनारूपेण विवक्षितैकदेशशद्धनिश्चयेन वृत्त्यर्थः-इस सूत्र में भिन्न प्रक्रमरूप व्यवहित संबन्ध से बीच के पद को ग्रहण करके व्याख्यान किया जाता है । "आदा" आत्मा “पुगलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु" व्यवहार नय की अपेक्षा से पुद्गल कर्म आदि का कर्ता है। जैसे-मन, वचन तथा शरीर की क्रिया से रहित निज शुद्ध आत्मतत्त्व की जो भावना है उस भावना से शून्य होकर अनुपचरित असद्भत व्यवहार नय की अपेक्षा ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों का तथा आदि शब्द से औदारिक, वैक्रियिक और आहारक रूप तीन शरीर तथा आहार आदि ६ पर्याप्तियों के योग्य जो पुद्गल पिंड रूप नौ कर्म हैं उनका तथा उपचरित असद्भत व्यवहार नय से बाह्य विषय घट, पट आदि का भी यह जीवकर्ता होता है । "णिच्छयणयदो चेदणकम्मणादा" और निश्चय नय की अपेक्षा से यह आत्मा चेतन कर्मों का कर्ता है। वह इस तरह-राग आदि विकल्प उपाधि से रहित निष्क्रिय, परमचैतन्य भावना से रहित होने के कारण जीव ने राग आदि को उत्पन्न करने वाले कर्मों का जो उर्पाजन किया है उन कर्मों का उदय होने पर निष्क्रिय और निर्मल आत्मज्ञान को नहीं प्राप्त होता हुआ यह जीव भावकर्म इस शब्द से वाच्य जो रागादि विकल्प रूप चेतन-कर्म हैं उनका अशुद्ध निश्चय नय से कर्त्ता होता है । अशुद्ध निश्चय का अर्थ यह है-कर्म-उपाधि से उत्पन्न होने से अशुद्ध कहलाता है और उस समय अग्नि में तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्मय (उसी रूप) होने से निश्चय कहा जाता है, इस रीति से अशुद्ध और निश्चय इन दोनों को मिलाकर अशुद्ध निश्चय कहा जाता है । “सुद्धणया सुद्धभावाणां" जब जीव शुभ, अशुभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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