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________________ २०] वृहद्र्व्य संग्रह [ गाथा = सन्ति । "अमुत्ति तदो" ततः कारणादमूर्तः । यद्यमस्तिहिं तस्य कथं कर्मबन्ध इति चेत् ? "ववहारा मुत्ति" अनुपचरितासद्भूतव्यवहारान्मर्तो यतः । तदपि कस्मात् ? ' बंधादो" अनन्तज्ञानाद्युपलम्भलक्षणमोक्षाविलक्षणादनादिकर्मवन्धनादिति । तथा चोक्तम् – कथंचिन्मूर्तामर्तजीवलक्षणम्- "बंधं पडि एयत्त लक्खणदो हवदि तस्स भिएणत्त । तम्हा अमुत्तिभावो णेगंतो होदि जीवस्स ॥१॥" अयमत्रार्थः--यस्यैवामर्त स्यात्मनः प्राप्त्यभावादनादिसंसारे भ्रमितोऽयं जीवः स एवामा मूर्तपञ्चेन्द्रियविषयत्यागेन निरंतरं ध्यातव्यः । इति भट्टचाकिमतं प्रत्यमतजीवस्थापनमुख्यत्वेन सूत्रं गतम् ॥ ७ ॥ अथ निष्क्रियामटिकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावेन कर्मादिक त्वरहितोऽपि जीवो व्यवहारादिनयवि भागेन कर्ता भवतीति कथयति : पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो । चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ॥८॥ पुद्गल कर्मादीनां कर्त्ता व्यवहारतः तु निश्चयतः । चेतन कर्मणां आत्मा शुद्धनयात् शुद्धभावानाम् ॥८॥ शंकाः-यदि जीव अमूर्तिक है तो इस जीव के कर्म का बँध कैसे होता है ? उत्तरः-"ववहारा मुत्ति" क्योंकि अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय से जीव मूत्तिक है; अतः कर्म-बँध होता है। शंका:-जीव मूर्त भी किस कारण से है ? उत्तर:-'-'बंधादो" अनंतज्ञान आदि की प्राप्ति रूप जो मोक्ष है उस मोक्ष से विपरीत अनादि कर्मों के बन्धन के कारण जीव मूर्त है। कथंचित् मूर्त तथा कथंचित् अमूर्त जीव का लक्षण है । कहा भी है :-कर्मबंध के प्रति जीव की एकता है और लक्षण से उस कर्मबंध की भिन्नता है इसलिये एकान्त से जीव के अमूर्तभाव नहीं है । १। इसका तात्पर्य यह है कि जिस अमूर्त आत्मा की प्राप्ति के अभाव से इस जीव ने अनादि संसार में भ्रमण किया है उसी अमूर्तिक शुद्धस्वरूप आत्मा को मूर्त पांचों इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके ध्यान करना चाहिये । इस प्रकार भट्ट और चार्वाक के प्रति जीव को मुख्यता से अमूर्त सिद्ध करने वाला सूत्र कहा ॥ ७ ॥ अब "क्रिया-शून्य अमूर्तिक" टंकोत्कीर्ण (टांकी से उकेरी हुई मूर्ति समान अविचल ) ज्ञायक एक स्वभाव से जीव यद्यपि कर्म आदि के कर्त्तापने से रहित है फिर भी व्यवहार श्रादि नय की अपेक्षा कर्ता होता है, ऐसा कहते हैं:____ गाथार्थः-आत्मा व्यवहारनय से पुद्गल कर्म आदि का कर्ता है; निश्चयनय से चेतन कर्म का कर्ता है और शद्ध नय की अपेक्षा से शुद्ध भावों का कर्ता है ॥ ८ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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