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________________ १८ ] बृहद् द्रव्य संग्रहः [ गाथा ६ व्याख्या - "अटु चदु णाण दंसण सामरणं जीवलक्खणं भणियं " अष्टविधं ज्ञानं चतुर्विधं दर्शनं सामान्यं जीवलक्षणं भणितम् । सामान्यमिति को - ऽर्थः संसारिजीवमुक्त जीवविवक्षा नास्ति, अथवा शुद्धाशुद्धज्ञानदर्शनविवक्षा नास्ति । तदपि कथमितिचेद् ९ विवक्षाया अभाव: सामान्यलक्षणमिति वचनात् । कस्मात् सामान्यम् जीवलक्षणं भणितम् ? " ववहारा" व्यवहारात् व्यवहारनयात् । अत्र केवलज्ञानदर्शनं प्रति शुद्धमद्भूतशब्दवाच्योऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारः, छद्मस्थज्ञानदर्शनापरिपूर्णापेक्षया पुनरशुद्धसद्भूत शब्दवाच्य उपचरितसद्भूतव्यवहारः, कुमतिकुश्रुतविभङ्गत्रये पुनरुप चरितासद् भूतव्यवहारः । " सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं गाणं” शुद्धनिश्चयनयात्पुनः शुद्धमखएडं केवलज्ञानदर्शनद्वयं जीवलक्षणमिति । किश्च ज्ञानदर्शनोपयोगविवक्षायामुपयोगशब्दन विवक्षितार्थपरिच्छित्तिलक्षणोऽर्थग्रहव्यापारो गृह्यते । शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयविवचायां पुनरुपयोगशब्देन शुभाशुभशुद्धभावनैकरूपमनुष्ठानं ज्ञातव्यमिति । अत्र सहजशुद्धनिर्विकारपरमानन्दै कला वृत्त्यर्थः- “टूठ चदु ारण दंसण सामरणं जीवलक्खणं भणियं" आठ प्रकार का ज्ञान तथा चार प्रकार का दर्शन सामान्य रूप से जीव का लक्षण कहा गया है। यहाँ पर सामान्य इस कथन का यह तात्पर्य है कि इस लक्षण में संसारी तथा मुक्त जीव की विवक्षा नहीं है, अथवा शुद्ध अशुद्ध ज्ञान दर्शन की भी विवक्षा नहीं है । सो कैसे ? इस शंका का उत्तर यह है कि "विवक्षा का अभाव ही सामान्य का लक्षण है" ऐसा कहा है। किस अपेक्षा से जीव का सामान्य लक्षण कहा है ? इसका उत्तर यह है कि "वहारा" अर्थात् व्यवहार नय की अपेक्षा से कहा है । यहाँ केवल ज्ञान, केवल दर्शन के प्रति शुद्ध- सद्भत शब्द से वाक्य ( कहने योग्य) अनुपचरित - सद्भूत व्यवहार है और छद्मस्थ के अपूर्ण ज्ञान दर्शन की अपेक्षा से अशुद्ध सद्भत शब्द से वाच्य उपचरित - सद्भत व्यवहार है; तथा कुमति कुश्रुत तथा कुअवधि इनमें उपचरित असद्भतव्यवहार नय है । "सुद्धगया सुद्ध पुरण दंसणं गाणं" शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध खंड केवल ज्ञान तथा केवल दर्शन ये दोनों जीव के लक्षण हैं । यहाँ ज्ञान दर्शनरूप उपयोग की विवक्षा में उपयोग शब्द से विवक्षित पदार्थ के जानने रूप वस्तु के ग्रहण रूप व्यापार का ग्रहण किया जाता है। और शुभ, अशुभ तथा शुद्ध इन तीनों उपयोगों की विवक्षा में उपयोग शब्द से शुभ, अशुभ तथा शुद्ध भावना एक रूप अनुष्ठान जानना चाहिये । यहाँ सहज शुद्ध निर्विकार परमानन्द रूप साक्षात् उपादेय जो अक्षय सुख है उसका उपादान कारण होने से केवल ज्ञान और केवल दर्शन ये दोनों उपादेय हैं। इस प्रकार नैयायिक के प्रति गुण, गुणी अर्थात् ज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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