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________________ गाथा ६] प्रथमाधिकारः [ १७ तत्त्वार्थे परोक्षं भणितं तिष्ठति । तर्कशास्त्रे सांव्यवहारिक प्रत्यक्षं कथं जातम् । यथा अपवादव्याख्यानेन मतिज्ञानं परोक्षमपि प्रत्यक्षज्ञानम् , तथा स्वात्माभिमुखं भावश्रुतज्ञानमपि परोक्षं सत्प्रत्यक्ष भण्यते । यदि पुनरेकान्तेन परोक्षं भवति तर्हि सुखदुःखादिसंवेदनमपि परोक्ष प्रामोति, न च तथा । तथैव च स एवात्मा, अवधिज्ञानावरणीयक्षयोपशमान्मू वस्तु यदेकदेशप्रत्यक्षेण सविकल्पं जानाति तदवधिज्ञानम् । यत्पुनर्मन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च स्वकीयमनोऽवलम्बनेन परकीयमनोगतं मूर्तमर्थमेकदेशप्रत्यक्षेण सविकल्पं जानाति तदीहामतिज्ञानपूर्वकंमनःपर्ययज्ञानम् । तथैव निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणलक्ष कानध्यानेन केवलज्ञानावरणादिघातिचतुष्टयतये सति यत्समुत्पद्यते तदेक समये समस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावग्राहकं सर्वप्रकारोपादेयभूतं केवलज्ञानमिति ॥ ५ ॥ अथ शानदर्शनोपयोगद्वयव्याख्यानस्य नयविभागेनोपसंहारः कथ्यते : अट्ट चदु णाणदंसण सामगणं जीवलक्खणं भणियं । ववहारा सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं गाणं ॥ ६ ॥ अष्टचतुर्ज्ञानदर्शने सामान्य जीवलक्षणं भणितम् । व्यवहारात् शुद्धनयात् शुद्धं पुनः दर्शनं ज्ञानम् ॥ ६ ॥ कैसे हुआ ? इसलिए जैसे अपवाद व्याख्यान से परोक्षरूप मतिज्ञान को भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है वैसे ही अपने आत्मा के सन्मुख जो भाव त ज्ञान है वह परोक्ष है तो भी उसको प्रत्यक्ष कहा जाता है। यदि एकान्त से ये मति, श्रु त दोनों परोक्ष ही हों तो सुखदुःख आदि का जो स्वसंवेदन-स्वानुभव है वह भी परोक्ष ही होगा। किन्तु वह स्वसंवेदन परोक्ष नहीं है । उसी तरह वही आत्मा अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से मूर्तिक पदार्थ जो एक देश प्रत्यक्ष द्वारा सविकल्प जानता है वह "अवधिज्ञान" है । तथा जो मनःपर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम से, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से अपने मन के अवलम्बन द्वारा पर के मन में प्राप्त हुए मूर्त पदार्थ को एक देश प्रत्यक्ष से सविकल्प जानता है वह ईहा मतिज्ञान पूर्वक "मनःपर्यय ज्ञान" है । एवं अपने शुद्ध आत्म-द्रव्य के यथार्थ श्रद्धान ज्ञान और आचरण रूप एकाग्र ध्यान द्वारा केवल ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों के नष्ट होने पर जो उत्पन्न होता है वह एक समय में समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव को ग्रहण करने वाला और सब प्रकार से उपादेय (ग्रहण करने योग्य) "केवल ज्ञान" है ॥ ५॥ ___ अब ज्ञान, दर्शन दोनों उपयोगों के व्याख्यान का नय-विभाग द्वारा उपसंहार कहते हैं: ___ गाथार्थः--व्यवहारनय से आठ प्रकार के ज्ञान और चार प्रकार के दर्शन का जो धारक है वह सामान्य रूप से जीव का लक्षण है और शुद्ध नय की अपेक्षा जो शुद्ध शान, दर्शन है वह जीव का लक्षण कहा गया है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jajnelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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