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________________ वृहद्र्व्य संग्रहः [ गाथा ५ वरणक्षयोपशमान्नाइन्द्रियावलम्बनाच्च प्रकाशोपाध्यायादिबहिरङ्गसहकारिकारणाच्च मूर्तामवस्तुलोकालोकव्याप्तिज्ञानरूपेण यदस्पष्टं जानाति तत्परोक्षं श्रुतज्ञानं भण्यते । किञ्च विशेषः-शब्दात्मकं श्रुतज्ञानं परोक्षमेव । तावत् , स्वर्गापपर्गादिबहिर्विषयपरिच्छित्तिपरिज्ञानं विकल्परूपं तदपि परोक्ष, यत्पुनरभ्यन्तरे सुखदुःखविकल्परूपोऽहमनन्त ज्ञानादिरूपोऽहमिति वा तदीपत् परोक्षम् ; यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञानं तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखसंवित्तिस्वरूपं स्वसंविषयाकारेण सविकल्पमपीन्द्रियमनोजनितरागादिविकल्पजालरहितत्वेन निर्विकल्पम् , अभेदनयेन तदेवात्मशब्दवाच्यं वीतरागसम्यक्चारित्राविनाभूतं केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमपि संसा । क्षायिकज्ञानाभावात् क्षायोपशमिकमपि प्रत्यक्षमभिधीयते । अत्राह शिष्यः-आये परोक्ष मिति तत्त्वार्थसूत्रे मतिश्रुतद्वयं परोक्षं भणितं तिष्ठति कथं प्रत्यक्षं भवतीति ? परिहारमाह-तदुत्सर्गव्याख्यानम् , इदं पुनरपवादव्याख्यानम् , यदि तदुत्सर्गव्याख्यानं न भवति तर्हि मतिज्ञानं कथं नो इन्द्रिय मन के अवलम्बन से प्रकाश और अध्यापक आदि बहिरंग सहकारी कारण के संयोग से मूर्ति तथा अमूर्तिक वस्तु को; लोक तथा अलोक को व्याप्ति रूप ज्ञान से जो अस्पष्ट जानता है उसको परोक्ष "श्र तज्ञान" कहते हैं। इसमें विशेष यह है कि शब्दात्मक जो श्रुतज्ञान है वह तो परोक्ष है ही; तथा स्वर्ग, मोक्ष आदि बाह्य विषयों का बोध कराने वाला विकल्परूप जो ज्ञान है वह भी परोक्ष है और जो आभ्यन्तर में सुख दुःख विकल्परूप मैं हूं अथवा मैं अनन्त ज्ञान आदि रूप हूं; इत्यादिक ज्ञान है वह ईषत् (किंचित) परोक्ष है । तथा जो निश्चय भावश्रुत ज्ञान है वह शुद्ध आत्मा के अभिमुख (सन्मुख) होने से सुखसंवित्ति-सुखानुभव-स्वरूप है और वह निज आत्मज्ञान के आकार से सविकल्प है तो भी इन्द्रिय तथा मन से उत्पन्न जो रागादि विकल्पसमूह हैं, उनसे रहित होने के कारण निर्विकल्प है; और अभेद नय से वही ज्ञान 'आत्मा' शब्द से कहा जाता है तथा वह वीतराग सम्यक् चारित्र के बिना नहीं होता; वह ज्ञान यद्यपि केवल ज्ञान की अपेक्षा परोक्ष है, तथापि संसारियों को क्षायिक ज्ञान का अभाव होने से क्षायोपशमिक होने पर भी "प्रत्यक्ष" कहलाता है। यहां पर शिष्य शंका करता है कि "आद्य परोक्षम्" इस तत्त्वार्थसूत्र में मति और श्रु त इन दोनों ज्ञानों को परोक्ष कहा है फिर श्रु तज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? अब शंका का उत्तर देते हैं कि तत्वार्थ सूत्र में जो श्रत को परोक्ष कहा है सो उत्सर्ग व्याख्यान है और 'भाव श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष है' यह अपवाद की अपेक्षा से कथन है । यदि तत्त्वार्थसूत्र में उत्सर्ग का कथन न होता तो तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान परोक्ष कैसे कहा जाता ? और यदि वह सूत्र में परोक्ष ही कहा गया है तो तर्कशास्त्र में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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