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________________ गाथा ४ ] प्रथमाधिकारः संभवमन्यदपि विवक्षितं लभ्यत इति ज्ञातव्यम् : उवओोगो दृवियप्पो दंसणणारणं च दंसणं चदुधा । चक्खु चक्खू ही दंसणमध केवलं यं ॥ ४ ॥ उपयोगः द्विविकल्पः दर्शनं ज्ञानं च दर्शनं चतुर्धा | चक्षुः श्रचक्षुः श्रवधिः दर्शनं अथ केवलं ज्ञेयम् ॥ ४ ॥ व्याख्या - " उवोगो दुवियप्पो" उपयोगो द्विविकल्पः "दंसणगाणं च” निर्विकल्पकं दर्शनं सविकल्पकं ज्ञानं च पुनः "दंसणं चदुधा" दर्शनं चतुर्धा भवति "चक्खु चक्खू ओही दंसणमध केवलं गेयं" चतुर्दर्शनम चतुर्दर्शनमवधिदर्शन मथ हो केवलदर्शनमिति विज्ञेयम् । तथाहि - श्रात्मा हि जगत्त्रयकालत्रयवर्त्तिसमस्तवस्तुसामान्य ग्राहकसकलविमल केवल दर्शनस्वभावस्तावत् पश्चादनादिकर्मबन्धाधीनः सन् चक्षुर्दर्शनावरणक्षयोपशमाद्वहिरङ्गद्रव्येन्द्रियालम्बनाच्च मूर्त सत्तासामान्यं निर्विकल्पम् संव्यवहारेण प्रत्यक्षमपि निश्चयेन परोक्षरूपेणैकदेशेन यत्पश्यति तच्चतुर्दर्शनं । तथैव स्पर्शनरसनप्राणश्रोत्रेन्द्रियावरण क्षयोपशमत्वात्स्व की यस्वकीय [ १३ कि 'अमुक विषय का मुख्यता से वर्णन करते हैं; वहाँ पर गौणता से अन्य विषय का भी यथासंभव कथन प्राप्त होता है' यह जानना चाहिये: गाथार्थ:- उपयोग दो प्रकार का है-दर्शन और ज्ञान। उनमें दर्शनोपयोग चतुदर्शन, . अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन और केवलदर्शन ऐसे चार प्रकार का जानना चाहिये ॥ ४ ॥ Jain Education International वृत्त्यर्थः - उपयोग दो प्रकार का है-दर्शन और ज्ञान । दर्शन तो निर्विकल्पक है और ज्ञान सविकल्पक है । दर्शनोपयोग चार प्रकार का होता है - चतुदर्शन चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शन, ऐसा जानना चाहिये । विशेष विवरण:- आत्मा तीन लोक और भूत, भविष्यत् तथा वर्त्तमान इन तीनों कालों में रहने वाले संपूर्ण द्रव्य सामान्य को ग्रहण करने वाला जो पूर्ण निर्मल केवलदर्शन स्वभाव है उसका धारक है; किन्तु श्रनादि कर्मबन्ध के अधीन होकर चक्षुदर्शनावरण के क्षयोपशम से तथा बहिरंग द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन से मूर्तिक पदार्थ के सत्ता सामान्य को जो कि संव्यवहार से प्रत्यक्ष है किन्तु निश्चय से परोक्षरूप है उसको एक देश से विकल्परहित जो देखता है वह चक्षुदर्शन है; उसी तरह स्पर्शन, रसना, प्राण तथा कर्णइन्द्रिय के आवरण के क्षयोपशम से और अपनी-अपनी बहिरंग द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन से मूर्तिक सत्तासामान्य को परोक्षरूप एक देश से जो विकल्परहित देखता है वह चतुदर्शन है । और इसी प्रकार मन इन्द्रिय के आवरण के क्षयोपशम से तथा सहकारी कारण रूप जो For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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