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________________ १४] बृहद्र्व्यसंग्रहः [ गाथा ५ बहिरङ्गद्रव्येन्द्रियालम्बनाच्च मृतं सत्तासामान्य विकल्परहितं परोक्षरूपेणेकदेशेन यत्पश्यति तदचक्षुर्दर्शनम् । तथैव च मनइन्द्रियावरस्मक्षयोपशमात्सहकारिकारणभूताष्टदलपमाकारद्रव्यमनोऽवलम्बनाच्च मूर्तामूर्चसमस्तवस्तुगतसत्तासामान्यं विकन्परहितं परोक्षरूपेण यत्पश्यति तन्मानसमचक्षुर्दर्शनम् । स एवात्मा यदवधिदर्शनावरणक्षयोपशमान्मूवस्तुगतसत्तासामान्यं निर्विकल्परूपेणेकदेशप्रत्यक्षेण यत्पश्यति तदवधिदर्शनम् । यत्पुनः सहजशुद्धसदानन्दैकरूपपरमात्मतत्वसंवित्तिप्राप्तिवलेन केवलदर्शनावरणक्षये सति मूर्तामूर्चसमस्तवस्तुगतमत्तासामान्यं विकल्परहितं सकलप्रत्यक्षरूपेणैकसमये पश्यति तदुपादेयभूतं क्षायिक केवलदर्शनं ज्ञातव्यमिति।४। अथाष्टकविकल्पं ज्ञानोपयोगं प्रतिपादयति : णाणं अहवियप्पं मदिसुदिश्रोही अणाणणाणाणि । मणपज्जयकेवलमवि पच्चक्खपरोक्खभेयं च ।। ५ ज्ञानं अष्टविकल्पं मतिश्रुतावधयः अज्ञानज्ञानानि । मनःपर्ययः केवलं अपि प्रत्यक्षपरोक्षभेदं च ॥५॥ व्याख्या-"गाणं अहवियप्पं" ज्ञानमष्टविकल्पं भवति । “मदिसुदिमोहीअणाणणाणाणि" अत्राष्टकविकल्पमध्ये मतिश्रुतावधयो मिथ्यात्वोदयवशाद्विपरीताभिनिवेशरूपाण्यज्ञानानि भवन्ति तान्येव शुद्धात्मादितत्त्वविषये आठ पांखड़ी के कमल के आकार द्रव्य मन है उसके अवलम्बन से मूर्त तथा अमूर्त समस्त द्रव्यों में विद्यमान सत्तासामान्य को परोक्ष रूप से विकल्परहित जो देखला है वह मानस अचक्षुदर्शन है । वही आत्मा अवधिदर्शनावरण के क्षयोपशम से मूर्त वस्तु में सत्तासामान्य को एक देश प्रत्यक्ष से विकल्परहित जो देखता है, वह अवधिदर्शन है । तथा सहज शुद्ध अविनाशी आनन्द रूप एक स्वरूप का धारक परमात्म तत्व के ज्ञान तथा प्राप्ति के बल से केवल-दर्शनावरण के क्षय होने पर समस्त मूर्त, अमूर्त वस्तु के सत्तासामान्य को सकल प्रत्यक्ष रूप से एक समय में विकल्परहित जो देखता है उसको उपादय रूप क्षायिक केवलदर्शन जानना चाहिये ॥४॥ अब आठ भेद सहित ज्ञानोपयोग प्रतिपादन करते हैं: गाथार्थः- कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ऐसे आठ प्रकार का ज्ञान है। इनमें कुअवधि, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल ये चार प्रत्यक्ष हैं और शेष चार परोक्ष हैं ॥ ५ ॥ वृत्त्यर्थः-"णाणं अट्ठवियप्पं” ज्ञान आठ प्रकार का है । "मदिसुदिओही अणाणणाणाणि" उन आठ प्रकार के ज्ञानों में मति, श्रुत तथा अवधि ये तीन मिथ्यात्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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