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________________ बृहद्रव्यसंग्रहः १२ ] [ गाथा ३ एव जीवाः इत्यशुद्धनिश्चयनयलक्षणम् । गुणगुणिनोरभेदोऽपि भेदोपचार इति सद्भूतव्यवहारलक्षणम् । भेदेऽपि सत्यभेदोपचार इत्यसद्भूतव्यवहारलक्षणं चेति । तथा हि-जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणा इत्यनुपचरितसंज्ञा शुद्धसद्भूतव्यवहारलक्षणम् । जोवस्यमतिज्ञानादयो विभावगुणा इत्युपचरितसंज्ञाऽशु द्धसद्भूतव्तवहारलक्षणम् । 'मदीयोदेहमित्यादि' संश्लेषसंबन्धसहितपदार्थपुनरनुपचरितसंज्ञाऽसद्भूतव्यवहारलक्षणम् । यत्र तु संश्लेषसंबन्धोनास्ति तत्र 'मदीय : पुत्र इत्यादि' उपचरिताभिधानामद्भतव्यवहारलक्षणमिति नयचक्र मूलभूतम् । संक्षेपेणनयषटकं ज्ञातव्य मिति ॥३॥ अथ गाथात्रयपर्यन्तं ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयं कथ्यते । तत्र प्रथमगाथायां मुख्यवृत्या दर्शनोपयोगव्यख्यानं करोति । यत्र मुख्यत्वमिति वदति तत्र एथा आदि सब जीवों में एक समान दृष्टिगोचर होते हैं। ५-६. स्वर्ग-नरक-जीव यदि स्वतंत्र पदार्थ न हो तो स्वर्ग में जाना तथा नरक में जाना किसके सिद्ध होगा। ७. पितर-अनेक मनुष्य मर कर भूत आदि हो जाते हैं और फिर अपने पुत्र, पत्नी आदि को कष्ट, सुख आदि देकर अपने पूर्व भव का हाल बताते हैं । ८. चूल्हा हंडी-जीव यदि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पांच भूतों से बन जाता हो तो दाल बनाते समय चूल्हे पर रक्खी हुई हंडिया में पांचों भूत पदार्थों का संसर्ग होने के कारण वहाँ भी जीव उत्पन्न हो जाना चाहिये, किन्तु ऐसा होता नहीं है । ६. मृतक-मुर्दा शरीर में पांचों भूत पदार्थ पाये जाते हैं; किन्तु फिर भी उसमें जीव के ज्ञान आदि नहीं होते। इस तरह जीव एक पृथक स्वतन्त्र पदार्थ सिद्ध होता है । इस दोहे में कहे हुए नौ दृष्टान्तों द्वारा चार्वाकमतानुयायी शिष्यों को समझाने के लिए जीव की सिद्धि के व्याख्यान से यह गाथा समाप्त हुई। अब अध्यातम भाषा द्वारा नय का लक्षण कहते हैं। "सब जीव शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव वाले हैं।" यह शुद्ध निश्चय नय का लक्षण है । “रागादि ही जीव हैं" यह अशुद्ध निश्चय नय का लक्षण है । “गुण और गुणों का अभेद होने पर भी भेद का उपचार करना” यह सद्भूत व्यवहार नय का लक्षण है । 'भेद होने पर भी अभेद का उपचार" यह असद्भत व्यवहार नय का लक्षण है । विशेष इस प्रकार है-'जीव के केवल ज्ञान आदि गुण है' यह अनुपचरित शुद्ध सद्भत व्यवहार नय का लक्षण है। जीव के मतिज्ञानादि विभाव गुण है' यह उपचरित अशुद्ध सद्भत व्यवहार नय है । 'संश्लेष संबंध सहित पदार्थ शरीरादि मेरे हैं। अनुपचरित असद्भत व्यवहार नय का लक्षण है । 'जिनका संश्लेष संबंध नहीं हैं, ऐसे पुत्र आदि मेरे हैं' यह उपचरित असद्भत व्यवहार नय का लक्षण है। यह नय चक्र का मूल है। संक्षेप में यह छह नय जाननी चाहिए ॥ ३ ॥ अब तीन गाथा पर्यन्त ज्ञान तथा दर्शन इन दो उपयोगों का वर्णन करते हैं। उनमें भी पहली गाथा में मुख्य रूप से दर्शनोपयोग का व्याख्यान करते हैं । जहाँ पर यह कथन हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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