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बृहद्रव्यसंग्रहः
[ गाभा १
" पुढ विजलतेउवाऊ" इत्यादिगाथात्रयम्, तदनन्तरं “णिक्कम्मा अट्ठगुणा ” इति प्रभृतिगाथापूर्वार्धेन सिद्धस्वरूपकथनम् उत्तरार्धेन पुनरूर्ध्वगतिस्वभावः । इति नमस्कारादिचतुर्दशगाथामेलापकेन प्रथमाधिकारे समुदायपातनिका ।
अथेदानीं गाथापूर्वार्धेन सम्बन्धाऽभिधेयप्रयोजनानि कथयाम्युत्तरार्धेन च मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारं करोमीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा भगवान् सूत्रमिदं प्रतिपादयति
जीवमजीवं दब्बं जिणवरवसहेण जेण सिद्दिहम् | देविंदविदवंद वंदे तं सब्बदा सिरसा ॥ १ ॥
जीवमजीवं द्रव्यं जिनवरवृषभेण मेन निर्दिष्टम् । देवेन्द्रवृन्दवंद्यं वन्दे तं सर्वदा शिरसा ॥ १ ॥
व्याख्या- 'वंदे' इत्यादिक्रियाकारकसम्बन्धेन पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । 'वंदे' एकदेशशुद्ध निश्चयनयेन स्वशुद्धात्माराधन लक्षणभावस्तवनेन तथा अद्भूतव्यवहारनयेन तत्प्रतिपादक व चनरूपद्रव्यस्तवनेन च 'बंदे' नमस्करोमि ।
स्वरूप का कथन किया है और उत्तरार्ध में जीव के ऊर्ध्वगमन स्वभाव का वर्णन किया है । इस प्रकार नमस्कारगाथा से लेकर जो चौदह गाथासूत्र हैं, उनका मेल करने से प्रथम अधि कार में समुदाय रूप से पातनिका का कथन है ।
गाथा के पूर्वार्ध द्वारा सम्बन्ध, अभिधेय तथा प्रयोजन कहता हूं, और गाथा के उत्तरार्ध से मङ्गल के लिये इष्ट देवता को नमस्कार करता हूँ, इस अभिप्राय को मन में रखकर भगवान “श्रीनेमिचन्द्र आचार्य " प्रथम सूत्र कहते हैं
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गाथार्थ - मैं ( नेमिचन्द्र श्राचार्य) जिस जिनवरों में प्रधान ने जीव और अजीव द्रव्य का वर्णन किया, उस देवेन्द्रादिकों के समूह से वंदित तीर्थङ्कर परमदेव को सदा मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं ॥ १ ॥
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बृत्यर्थः - 'वंदे' इत्यादि पदों का क्रियाकारकभावसंबन्ध से पदखंडना रीतिद्वारा व्याख्यान किया जाता है । "वंदे" एक देश शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से निज-शुद्ध आत्मा का आराधन करने रूप भावस्तवन से और असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा उस निज-शुद्ध आत्मा का प्रतिपादन करने वाले वचनरूप द्रव्यस्तवन से नमस्कार करता हूं । तथा परमशुद्ध निश्चयनय से बन्धवन्दक भाव नहीं है । (अर्थात् एकदेश शुद्ध निश्चयनय और
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