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________________ [३ प्रथमाधिकारः तत्राप्यादौ प्रथमाधिकारे चतुर्दशगाथापर्यन्तं जीवद्रव्यव्याख्यानम् । ततः परं "अज्जीबो पुण णेो" इत्यादि गाथाष्टकपर्यन्तमजीवद्रव्यकथनम् । ततः परं "एवं छन्भेयमिदं" एवं सूत्रपञ्चकपर्यन्तं पञ्चास्तिकायविवरणम् । इति प्रथमाधिकारमध्येऽन्तराधिकारत्रयमवबोद्धव्यम् । तत्रापि चतुर्दशगाथासु मध्ये नमस्कारमुख्यत्वेन प्रथमगाथा । जीवादिनवाधिकारसूचनरूपेण “जीवो उवोगमओ" इत्यादि द्वितीयसूत्रगाथा । तदनन्तरं नवाधिकारविवरणरूपेण द्वादशसूत्राणि भवन्ति । तत्राप्यादौ जीवसिद्धयर्थ “तिक्काले चदुपाणा" इतिप्रभृतिसूत्रमेकम् , तदनन्तरं ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयकथनार्थ "उवअोगो दुबियप्पो" इत्यादिगाथात्रयम् , ततः परममूत्वकथनेन “बएणरसपंच" इत्यादिसूत्रमेकम् , ततोऽपि कर्मकत त्वप्रतिपादनरूपेण "पुग्गलकम्मादीणं" इतिप्रभृतिसूत्रमेकम् , तदनन्तरं भोक्तृत्वनिरूपणार्थं "ववहारा सुहदुक्वं' इत्यादिसूत्रमेकम् , ततः परं स्वदेहप्रमितिसिद्ध यर्थ "अणुगुरुदेहपमाणो" इतिप्रभतिसूत्रमेकम् , ततोऽपि संसारिजीवस्वरूपकथनेन उन तीनों अधिकारों में भी आदि का जो पहला अधिकार है उस में १४ गाथा द्वारा "णिकम्मा अठुगुणा" इस गाथा तक जीवद्रव्य का व्याख्यान है । उसके आगे "अज्जीवो पुण णेओ” इस गाथा मे लेकर "लोया यासपदेसे" गाथा तक की आठ गाथाओं में अजीवद्रव्य का वर्णन है । तदनन्तर “एवं छच्भेयमिदं” इस गाथा से लेकर पाँच गाथाओं में "जावदियं आयासं' इस गाथा तक पाँच अस्तिकायों का वर्णन करने वाला तीसरा अन्तराधिककार है । इस तरह प्रथम अधिकार में तीन अन्तराधिकार समझने चाहिये । प्रथम अधिकार के पहले अन्तराधिकार में जो चौदह गाथाएँ हैं उनमें नमस्कार की मुख्यता से पहली गाथा है । जीव आदि नव ६ अधिकारों के सूचना रूप से “जीवो उवयोगमओ" दसरी सत्र गाथा है। इसके पश्चात् नौ अधिकारों का विशेष वर्णन करने रूप बारह गाथाएँ हैं । उन १२ सूत्रों में भी प्रथम ही जीव की सिद्धि के लिये “तिकाले चदुपाणा" इत्यादि एक गाथा है । इसके बाद ज्ञान और दर्शन इन दोनों उपयोगों को कहने के लिये “उवोगो दुवियप्पो” इत्यादि तीन गाथा सूत्र हैं। तदनन्तर जीव की अमूर्त्तता का कथन रूप “वरणरसपंचगंधा" एक गाथासूत्र है । तत्पश्चात् जीव के कर्मकता का प्रतिपादन करने रूप “पुग्गलकम्मादीणं" एक गाथासूत्र है । इसके पीछे जीव के कर्मफलों के भोक्तापने का कथन करने के लिये "ववहारा सुहदुक्खं” इत्यादिक एक गाथा है । उसके पीछे जीव को अपने देह-प्रमाण सिद्ध करने के लिये "अणुगुरुदेहपमाणो” एक गाथासूत्र है। इसके बाद संसारी जीव के स्वरूप का कथन करने रूप “पुढविजल तेउवाऊ” आदि तीन गाथासूत्र हैं। इसके अनन्तर "णिकम्मा अष्टगुणा" गाथा के पूर्वार्ध में जीव के सिद्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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