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________________ २] 1 स्य भव्यवरपुण्डरीकस्य भाण्डागाराद्यनेकनियोगाधिकारिसोमाभिधानराजश्रेष्ठिनो निमित्त श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तदेवैः पूर्वं षड्विंशतिगाथाभिर्लघुद्रव्यसंग्रहं कृत्वा पश्चाद्विशेषतस्त्रपरिज्ञानार्थं विरचितस्य वृहद्रव्यसंग्रहस्याधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन व्याख्या वृत्तिः प्रारभ्यते । तत्रादौ "जीवमजीवं दब्बं" इत्यादि सप्तविंशतिगाथापर्यन्तं षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायप्रतिपादकनामा प्रथमोऽधिकारः । तदनन्तरं "आसवबंधण" इत्याद्येकादशगाथापर्यन्तं सप्ततन्त्वनवपदार्थ प्रतिपादनमुख्यतया द्वितीयो महाधिकारः । ततः परं “सम्मद्द' सणणाणं" इत्यादिविंशतिगाथापर्यन्तं मोक्षमार्गकथनमुख्यत्वेन' तृतीयोऽधिकारश्च । इत्यष्टाधिकपञ्चाशद्गाथाभिरधिकारत्रयं ज्ञातव्यम् । वृहद् द्रव्यसंग्रह सिद्धान्त चक्रवर्ती ने लघु द्रव्यसंग्रह का पहले २६ गाथाओं में निर्माण किया था । वह सोम सेठ ने शुद्ध आत्म- द्रव्य के संवेदन से उत्पन्न होनेवाले सुखामृत रस के आस्वाद से विपरीत जो नरकादि के दुख से भयभीत था और परमात्मा की भावना से प्रगट होने वाले सुखरूपी अमृत रस का प्यासा था, भेद-भेद रूप रत्नत्रय ( निश्चय व्यवहार रूप रत्नत्रय - सम्यग् दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ) भावना का बहुत प्रेमी था, भव्य जनों में श्रेष्ठ राजकोष (राज- खजाने ) का कोषाध्यक्ष ( खजानची ) आदि अनेक राज - कार्यों का अधिकारी था । फिर श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उस लघु द्रव्यसंग्रह को विशेष तत्त्वज्ञान कराने के लिये बढ़ाकर ५८ गाथाओं में रचा, उस बड़े द्रव्यसंग्रह के अधिकारों का विभाजन करते हुये मैं ( ब्रह्मदेव ) वृत्ति आरम्भ करता हूँ । उस वृहद्रव्य संग्रहनामक शास्त्र में पहले "जीवमजीवं दव्बं" इस गाथा से लेकर " जीवदियं श्रायास" इस सत्ताईसवीं गाथा तक जीव ९; पुद्गल २: धर्म ३; अधर्म ४; आकाश ५ और काल ६ इन छः द्रव्यों का तथा जीव १; पुद्गल २; धर्म २; अधर्म ४ और आकाश ५ इन पाँचों अस्तिकायों का वर्णन करने वाला षड्द्रव्य पंचास्तिकायप्रतिपादक नामक पहला अधिकार है। इसके बाद "आसवबंधरणसंवर" इस गाथा से लेकर "सुहासुहभावजुत्ता" इस अड़तीसवीं गाथा तक जीव ९; अजीव २; आस्रव ३; बंध ४: संवर ५; निर्जरा ६ और मोक्ष ७ इन सातों तत्वों का और जीव १; अजीव २: आस्रव ३; बंध ४; संवर ५; निर्जरा ६; मोक्ष ७; पुण्य और पाप ६ इन नव पदार्थों का मुख्यता से प्रतिपादन करने वाला "सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादक" नामक दूसरा महा अधिकार है । तदनन्तर “सम्म सरणरणाणं” इस गाथा से लेकर अगली बीस गाथाओं तक मुख्यता से मोक्षमार्ग का वर्णन करने वाला तीसरा अधिकार है । इस प्रकार अट्ठावन गाथाओं द्वारा तीन अधिकार जानने चाहियें । १; 'मुख्यतया' इति पाठान्तरम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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