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________________ गाथा १ ] प्रथमाधिकारः [ ५ 1 "" परमशुद्धनिश्चयन येन पुनर्वद्य वन्दकभावो नास्ति । स कः कर्ता ? अहं नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवः । कथं वन्दे ? " सव्वदा " सर्वकालम् । केन ? " सिरसा " उत्तमाङ्ग ेन । "तं" कर्म्मतापन्नं । तं कं ? वीतरागसर्वज्ञम् । किं विशिष्टम् १ 'देविंदबिंदवंद' मोक्षपदाभिलाषिद वेन्द्रादिवन्द्यम्, “भवणालयचालीसा वितरदेवारण होंति बत्तीसा । कप्पामरचउवीसा चंदो सूरो खरो तिरियो || १ ||" इति गाथाकथितलक्षणेन्द्राणां शतेन वन्दितं' देवेन्द्र वृन्दवन्द्यम् । " जेण" येन भगवता | किं कृतं ? " गिद्दट्ठ” निर्दिष्टं कथितं प्रतिपादितम् । किं ? " जीवमजीवं दब्बं" जीवाजीवद्रव्यद्वयम् । तद्यथा, सहजशुद्ध चैतन्यादिलक्षणं जीवद्रव्यं तद्विलक्षणं पुद्गलादिपञ्चभेदमजीवद्रव्यं च तथैव विच्चमत्कारलक्षणशुद्धजीवास्तिकायादि पञ्चास्तिकायानां, परमचि ज्योतिःस्वरूप शुद्ध त्रीजादिसप्ततच्चानां निर्दोषपरमात्मादिनवपदार्थानां च स्वरूपमुपदिष्टम् | पुनरपि कथम्भूतेन भगवता ? " जिणवरवसहेण " जित - मिथ्यात्वरागादित्वेन एकदेश जिना : असंयतसम्यग्दृष्ट्यादयस्तेषां वराः गणधर - 1 , असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से जिनेन्द्रदेव वन्दनीय हैं और मैं वन्दना करने वाला हूं किन्तु परमशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा वन्द्यवन्दक भाव नहीं है, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् और मेरा आमा समान है । ) वह नमस्कार करने वाला कौन है ? मैं द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ का निर्माता श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव हूं । कैसे नमस्कार करता हूं ? "सच्चदा" सदा, "शिरसा" शिर झुका करके नमस्कार करता हूं । "तं" वन्दना क्रिया के कर्मपने को प्राप्त । किसको नमस्कार करता हूं ? उस वीतरागसर्वज्ञ को । वह वीतरागसर्वज्ञ देव कैसा है ? " देविंदविंद वंद" मोक्ष पद के अभिलापी देवेनादि से वन्दनीक है । 'भवनवासी देवों के ४० इन्द्र, व्यन्तर देवों के ३२ इन्द्र; कल्पवासी देवों के २४ इन्द्र ज्योतिष्क देवों के चन्द्र और सूर्य ये २ इन्द्र, मनुष्यों का १ इन्द्र -- चक्रवर्ती तथा तिर्यञ्चों का १ इन्द्र सिंह ऐसे सब मिल कर १०० इन्द्र हैं ।। १ ।।' इस गाथा में कहे १०० इन्द्रों से वंदनीय है । जिस भगवान् ने क्या किया है ? “गिट्टि" कहा है। क्या कहा है ? "जीवमजीवं दव्बं" जीव और अजीव दो द्रव्य कहे हैं। जैसे कि स्वाभाविक शुद्ध चैतन्य आदि लक्षणवाला जीव द्रव्य है, और इससे विलक्षण गुणी यानी - अचेतन १ पुद्गल; २ धर्म; ३ अधर्म, ४ आकाश और ५ काल, इन पांच भेदों वाला अजीव द्रव्य है । तथा चित् चमत्काररूप लक्षणवाला शुद्ध जीव-अस्तिकाय एवं पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच अस्तिकाय हैं । परमज्ञान-ज्योति-स्वरूप शुद्ध जीव तथा अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व हैं और दोषरहित परमात्मा जीव आदि नौ पदार्थ हैं; उन सबका स्वरूप कहा है । पुनः वे भगवान् कैसे हैं ? “जिरणवरवस हे " मिथ्यात्व तथा राग आदि को जीतने के कारण असंयतसम्यग्दृष्टि आदि एकदेशी जिन हैं, १; 'बंद्यत्वात्' इति पाठान्तम् । २; 'कथम्भूतेन ? तेन भगवता जिरणवरबसहेगा' इति पाठान्तरम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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