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________________ गाथा ५७ ] तृतीयोऽधिकारः [ २२७ तच्चादिमत्रिकोत्तमसंहननाभावेऽप्यन्तिमत्रिकसंहननेनापि भवति । तदप्युक्त तत्रैव तत्त्वानुशासने “यत्पुनर्वज्रकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः । श्रेण्योर्ध्यानं प्रतीत्योक्त तन्नाधस्तान्निषेधकम् । १।" यथोक्त दशचतुर्दशपूर्वगतश्रतज्ञानेन ध्यानं भवति तदप्युत्सर्गवचनम् । अपवादव्याख्यानेन पुनः पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकसारभूतश्रुतेनापि ध्यानं भवति केवलज्ञानञ्च । यद्येवमपवादव्याख्यानं नास्ति तर्हि "तुसमासं घोसन्तो सिवभूदी केवली जादो" इत्यादिगन्धर्वाराधनादिभणितं व्याख्यानम् कथम् घटते ? अथ मतम्-पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकं द्रव्यश्रुतमिति जानाति । इदं भावश्रुतं पुनः सर्वमस्ति । नैवं वक्तव्यम् । यदि पश्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादक द्रव्यश्रुतं जानाति तर्हि ‘मा रूसह मा तूसह' इत्येकं पदं किं न जानाति । तत एव ज्ञायतेऽष्टप्रवचनमातृप्रमाणमेव भावश्रुतं, द्रव्यश्रुतं पुनः किमपि नास्ति । इदन्तु व्याख्यानमस्माभिर्न कल्पितमेव । तच्चारित्रसारादिग्रन्थेष्वपि भणितमास्ते । तथाहि-अन्तमहू दूर्व ये केवलज्ञानमुत्पादयन्ति ते क्षीणकषायगुणस्थानवर्तिनो निगथसंज्ञा गुणस्थानों में जो धर्मध्यान होता है, वह धर्मध्यान पहले तीन उत्तम संहननों के अभाव होने पर भी अंतिम के (अर्द्धनाराच, कीलक और सृपटिका) तीन संहननों से भी होता है। यह भी उसी तत्त्वानुशासन ग्रंथ में कहा है-"वज्रकाय (संहनन) वाले के ध्यान होता है, ऐसा आगम-वचन उपशम तथा क्षपक श्रेणी के ध्यान की अपेक्षा कहा है। यह वचन नीचे के गुणस्थानों में धर्मध्यान का निषेधक नहीं है।" जो ऐसा कहा है कि, 'दश तथा चौदहपूर्व तक के श्रुतज्ञान से ध्यान होता है' वह भी उत्सर्ग-वचन है । अपवाद व्याख्यान से तो पाँच समिति और तीन गुप्ति को प्रतिपादन करने वाले सारभूत श्रुतज्ञान से भी ध्यान और केवलज्ञान होता है। यदि ऐसा अपवाद व्याख्यान न हो, तो 'तुष-माष का उच्चारण करते हुए श्री शिवभूति मुनि केवलज्ञानी होगये' इत्यादि गंधर्वाराधनादि ग्रन्थों में कहा हुआ कथन कैसे सिद्ध होवे । शंका-श्री शिवभूति मुनि पांच समिति और तीन गुप्तियों को प्रतिपादन करने वाले द्रव्यश्रुत को जानते थे और भावश्रुत उनके पूर्णरूप से था। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, यदि शिवभूति मुनि पांच समिति और तीन गुप्तियों का कथन करने वाले द्रव्यश्रत को जानते थे तो उन्होंने "मा तूसह मा रूसह" अर्थात् 'किसी में राग और द्वेष मत कर' इस एक पद को क्यों नहीं जाना । इसी कारण से जाना जाता है कि पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप आठ प्रवचन मातृका प्रमाण ही उनके भावश्रुत था और द्रव्यश्रुत कुछ भी नहीं था। यह व्याख्यान मैंने ही कल्पित नहीं किया है; किंतु 'चारित्रसार' आदि शास्त्रों में भी यह वर्णन हुआ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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